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________________ बाहुबलि-कथा का विकास एवं तद्विषयक साहित्य : एक सर्वेक्षण 107 संक्षेप में, बाहुबली-कथा-विकास की दृष्टि से यदि विचार किया जाय तो बाहुबलि परित का मूल रूप आचार्य कुन्दकुन्द के पूर्वोक्त अष्ट पाहुड में मिलता है, जो अत्यन्त संक्षिप्त है एवं जिसका दृष्टिकोण शुद्ध आध्यात्मिक है। किन्तु उसी सूत्र को लेकर परवत्ती साहित्यकारों ने अपनी-अपनी रुचियों एवं कल्पनाओं के आधार पर क्रमश उसे विकसित किया। दूसरी सदी के आसपास विमलसूरि ने उसे कुछ विस्तार देकर भाई-भाई (भरतबाहुबली) के युद्ध के रूप में चित्रित कर कथा को सरस एवं रोचक बनाने का प्रयत्न किया। अहिंसक दृष्टिकोण के नाते व्यर्थ के नर-संहार को बचाने हेतु दृष्टि एवं मुष्टि युद्ध की भी कल्पना की गयी। इसी प्रकार बाहुबली के चरित को समुज्ज्वल बनाने हेतु ही भरत के चरित में कुछ दूषण लाने का भी प्रयत्न किया गया । वह दूषण और कुछ नहीं, केवल यही, कि पराजित होने पर वे पारम्परिक मर्यादा को भंग कर बाहुबली पर अपनेचक्र का प्रहार कर देते हैं। ११-१२ वीं सदी में विदेशियों ने भारत पर आक्रमण कर भारतीय जन-जीवन को पर्याप्त अशान्त बना दिया था। विदेशियों से लोहा लेने के लिए अनेक प्रकार के हथियारों के आविष्कार हुए, उनमें से लाठी एवं लाठी से संयुक्त हथियार सार्वजनीन एवं प्रधान बन गए थे। बाहुबलीचरित में भी दृष्टि, मुष्टि, एवं गिरा-युद्ध के साथ उक्त लाठी-युद्ध ने भी अपना स्थान बना लिया था । १२ वीं सदी तक के साहित्य से यह ज्ञात नहीं होता कि भरत-बाहुबली का युद्ध कितने दिनों तक चला। किन्तु १३ वीं सदी में उस अभाव की भी पूर्ति कर दी गयी और बताया जाने लगा कि वह युद्ध १३ दिनों तक चला था । यद्यपि १५ वीं सदी के कवियों को यह युद्ध-काल मान्य नहीं था। उनकी दृष्टि से वह युद्ध १२ वर्षों तक चला था। १३ वीं सदी की एक विशेषता यह भी है कि तब तक बाहुबलिचरित सम्बन्धी स्वतन्त्र रचना लेखन नहीं हो पाया था। किन्तु १३ वीं सदी में बाहुबली-कथा जनमानस में पर्याप्त सम्मानित स्थान बना चकी थी। अतः लोक रुचि को ध्यान में रखकर अनेक कवियों ने लोक-भाषा एवं लोक-शैलियों में भी इस चरित का स्वतन्त्ररूपेण अंकन प्रारम्भ किया, यद्यपि संस्कृत, प्राकृत एवं अन्य भाषाओं में भी उनका छिटपुट चित्रण होता रहा । रासा-शैली में रससिक्त रचना "भरतेश्वर-बाहुबलीरास' लिखी गयी । अपनी दिशा में यह सर्वप्रथम स्वतन्त्र रचना कही जा सकती है । १५ वीं सदी के महाकवि धनपाल की "बाहुबली देवचरिउ' नामक अपभ्रश रचना सर्वप्रथम स्वतन्त्र महाकाव्य है। इसका कथानक यद्यपि जिनसेन कृत आदिपुराण के आधार पर लिखा गया किन्तु विविध घटनाओं को विस्तार देकर कवि ने उसे अलंकृत-काव्य की कोटि में प्रतिष्ठित किया है । पश्चाद्वर्ती काव्यों में 'भरतेश-वैभव' (रत्नाकरवर्णी) एवं 'भरतबाहुबली महाकाव्यम्' (पुण्यकुशलगणि) भी अपने सरस एवं उत्कृष्ट काव्य-सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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