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Vaishali Institute Research Bulletin No. 4 इस ग्रन्थ की प्रमुख विशेषता यह है कि इसकी आद्य-प्रशस्ति में ऐसे अनेक पूर्ववर्ती साहित्यकारों एवं उनकी रचनाओं के उल्लेख मिलते हैं, जो साहित्य जगत के लिए सर्वथा अज्ञात एवं अपरिचित थे। उनमें से कुछ के नाम इस प्रकार हैं :-कवि चक्रवर्ती धीरसेन, वज्रसूरि एवं उनका षट्दर्शन प्रमाण ग्रन्थ, महासेन एवं उनका सुलोचना चरित, दिनकरसेन एवं उनका कन्दर्प चरित (अर्थात् बाहुबली चरित), पद्मसेन और उनका पार्श्वनाथ चरित, अमृताराधना (कर्ता के नाम का उल्लेख नहीं), गणि अम्बसेन और उनका चन्द्रप्रभचरित तथा धनदत्तचरित, कवि विष्णुसेन (इनकी रचनाओं का उल्लेख नहीं), मुनि सिंह नन्दि
और उनका अनुप्रेक्षाशास्त्र एवं णवकारमन्त्र, कवि नरदेव (रचना का उल्लेख नहीं), कवि गोविन्द और उनका जयधवल और शालिभद्र चतुर्मुख, द्रोण एवं सेढु' (इनकी रचनाओं के उल्लेख नहीं)। जैन-साहित्य के इतिहासकारों के लिए ये सूचनाएँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं ।
इस रचना के रचयिता महाकवि धनपाल हैं, जो गुजरात के पल्हणपुर या पालनपुर के निवासी थे। उस समय वहाँ बीसलदेव राजा का राज्य था। उन्होंने चन्द्रवाड नगर के राज्य-श्रेष्ठी और राज्यमन्त्री, जैसवाल कुलोत्पन्न साहू वासाधर की प्रेरणा से उक्त बाहुबली देवचरिउ की रचना की थी। वासाधर के पिता-सोमदेव सम्भरी (शाकम्भरी?) के राजा कर्णदेव के मन्त्री थे।
अपने व्यक्तिगत परिचय में कवि ने बताया है कि पालनपुर के पुखाड़वंशीय भोंव इ नाम के ही उसके (कवि के) पितामह थे। उनके पुत्र सुहडप्रभ तथा उसकी पत्नी सुहडादेवी से कवि धनपाल का जन्म हुआ था। कवि के अन्य दो भाई सन्तोष एव हरिराज थे।
कवि धनपाल के गुरु का नाम प्रभाचन्द्र था। उनके आशीर्वाद से कवि को कवित्वशक्ति प्राप्त हुई थी। ये प्रभाचन्द्रगणि ही आगे चलकर योगिनीपुर (दिल्ली) के एक महोत्सव में भट्टारक रत्नकीत्ति के पट्ट पर प्रतिष्ठित किये गये थे। इन्होंने अनेक वादियों को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। दिल्ली के तत्कालीन सम्राट मुहम्मदशाह तुगलक इनकी प्रतिभा से अत्यन्त प्रसन्न रहते थे। बाहुबलिदेव चरिउ की अन्त्यप्रशस्ति के अनुसार कवि का समय वि० सं० १४५४ की वैशाख शुक्ल त्रयोदशी सोमवार है।
रत्नाकरवी कृत भरतेश-वैभव भारतीय वाङ्गमय की अपूर्व रचना है। इसकी २७ वी सन्धि में प्रसंग प्राप्त कामदेव आस्थान सन्धि में बाहुबली के बल वीर्य पुरुषार्थ एवं पराक्रम के साथ-साथ उनकी स्वाभिमानी एवं दीली वृत्ति एवं विचार-दृढ़ता का हृदयग्राही चित्रण किया गया है। वैसे तो यह समस्त ग्रन्थ गन्ने की पोरों के समान सर्व प्रसंगों में मधुर है, किन्तु भरत एवं बाहुबली का संघर्ष इस ग्रन्थ की अन्तरात्मा है । भाई-भाई में अहंकार वश भावों में विषमता आ सकती है। किन्तु तद्भव मोक्षगामी चरमशरीरी
१. दे. वही०, आद्यप्रशस्ति । २. धर्मवीर जैनग्रन्थमाला, कल्याण-भवन (शोलापुर, १९७२ ई०) से दो जिल्दों
में प्रकाशित ।
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