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________________ प्राकृत और संस्कृत का समानान्तर भाषिक विकास 25 ने भी संस्कृत को प्राकृत की परिपोषिका या आधारभूमि के रूप में स्वीकार किया । स्वष्टहै कि प्राकृत और संस्कृत दोनों एक दूसरे की पूरक या सहयोगी भाषा के रूप में समादृत्त होती रही हैं और दोनों ही भाषाएँ दोनों भाषाओं के पण्डितों को मोहित प्रभावित करती रही हैं । द्वेष या विभेद की जो कुछ गुंजाइश यदा-कदा दिखाई पड़ती रही है, बह भाषिक या साहित्यिक स्तर पर नहीं, अपितु राजनीति या धार्मिक दुराग्रह के आधार पर ही मानी जायगी। खासकर, सम्पूर्ण संस्कृत-नाटकों के स्त्रीपात्रों या निम्नवर्गीय पात्रों के कथोपकथनों में प्राकृत का प्रयोग यह सिद्ध करता है कि संस्कृत जहाँ घर से अन्यत्र की बोलचाल की व्यावहारिक भाषा थी, वहीं प्राकृत घरेलू वाग्व्यवहार की । इसलिए, यह स्वतः स्पष्ट है कि संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाएँ समानान्तर रूप से विकसित होनेवाली एक ही शाखा के दो स्वतन्त्र रूप रहीं और दोनों के भाषिक एवं साहित्यिक तत्त्वों का पारस्परिक आदान-प्रदान समान रूप से होता रहा है । इसलिए, प्राकृत-साहित्य के तात्त्विक अध्ययन के विना संस्कृत साहित्य का अध्ययन एकांगी ही माना जायगा । सच पूछिये, तो संस्कृतसाहित्य के समानान्तर अध्ययन की परिपूर्णता प्राकृत-साहित्य में प्राप्त तत्त्वों के अध्ययन में ही निहित है । प्राकृत-साहित्य की तात्त्विक उपलब्धियाँ : तत्त्वतः, प्राकृत-साहित्य, सहस्रों वर्षों तक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक दृष्टि से भारतीय जन-जीवन का प्रतिनिधि साहित्य रहा है | प्राकृत - साहित्य में तत्कालीन सामाजिक जीवन के अनेक आरोह-अवरोह प्रतिबिम्बित हुए हैं । जहाँतक भारतीयेतिहास और संस्कृति का प्रश्न है, प्राकृत-साहित्य इन दोनों का निर्माता रहा है । यद्यपि प्राकृत में अधिकांश साहित्य अभीतक अध्ययन-अनुचिन्तन की प्रतीक्षा में है और उसके तथ्यों का तात्त्विक उपयोग इतिहास रचना में नहीं किया जा सका है, तथापि वर्तमान में प्राकृत का जो साहित्य उपलब्ध हो पाया है, उसका फलक संस्कृत-साहित्य के समानान्तर ही बड़ा विशाल है । हम रूपक का सहारा लेकर ऐसा कहें कि प्राकृत और संस्कृत दोनों, ऐसी सदानीरा सरिताएं हैं, जिनकी अनाविल धाराएँ अनवरत एक-दूसरे मिलती रही हैं । दोनों परस्पर अविच्छिन्न भाव से सम्बद्ध हैं । विधा और विषय की दृष्टि से प्राकृतसाहित्य की महत्ता सर्वस्वीकृत है । भारतीय लोक-संकृति के सांगोपांग अध्ययन या उसके उत्कृष्ट रमणीय रूप-दर्शन का अद्वितीय माध्यम प्राकृत-साहित्य ही है । इसमें उन समस्त लोकभाषाओं का तुंग तरंग प्रवाहित हो रहा है, जिन्होंने भाषा के आदिकाल से देश के विभिन्न भागों की वैचारिक जीवन भूमि को सिंचित कर उर्वर किया है एवं अपनी शब्दसंजीवनी से साहित्य के विविध क्षेत्रों को रसोज्ज्वल बनाया है । शास्त्रीय दृष्टि से प्राकृत का उद्भव काल ईसवी पूर्व छठी शती स्वीकृत है और विकास-काल सन् १२०० ई० तक माना जाता है । परन्तु यह भी सही है कि प्राकृत भाषा में ग्रन्थ-रचना ईसवी पूर्व छठी शती से प्राय: वर्त्तमान काल तक न्यूनाधिक रूप से निरन्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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