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________________ प्राचीन जैन शिलालेखों एवं जैनग्रन्थ प्रशस्तियों में उल्लिखित कुछ श्रावक-श्राविकायें 151 शयनासन, हाथी घोड़े, ध्वजा, छत्र चमर, सुन्दर-सुन्दर पत्नियाँ, रथ, सेना सोना-चाँदी, धन-धान्य, भवन सम्पत्ति, कोष, नगर, देश, ग्राम, बन्धु बान्धव, सुन्दर सन्तान, पुत्र भाई आदि सभी मुझे उपलब्ध हैं । सौभाग्य से किसी भी प्रकार की भौतिक-सांसारिक सुखसामग्री की मुझे कमी नहीं । किन्तु, इतना सब होने पर भी मुझे एक वस्तु का अभाव सदा खटकता रहता है और वह यह कि मेरे पास काव्य रूपी एक भी सुन्दर मणि नहीं है । उसके बिना मेरा सारा सौन्दर्य फीका-फीका सा लगता है । अतः हे कविश्रेष्ठ, आप तो मेरे परम हितैषी हैं और है सच्चे पुण्य सहायक । मेरे मन की इच्छाओं को आप ही पूर्ण कर सकते हैं । यही सोचकर अपने हृदय की गाँठ आपके सामने खोलता हूँ और विनय करता हूँ कि आप मेरे निमित्त एक ग्रन्थ की रचना कर दीजिए, जिससे कि मैं उसका प्रतिदिन स्वाध्याय कर सकूँ ।" कमलसिंह की प्रार्थना सुनकर महाकवि रइधू ने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा - " विद्वज्जनों का आदर करनेवाले हे भाई, तुम मेरी बात सुनो —तुमने प्रतिष्ठा आदि कराकर अशुभ कर्मबन्ध से मुक्त होकर तीर्थंकर - गोत्र का बन्ध किया है । कैलाश सरोवर में भरे हुए विमल जल के सदृश ही तुमने गोपाचल को पवित्र तीर्थ बना दिया है । प्रजाजनों का पालन करने में तुम अत्यन्त प्रवीण हो । शास्त्र-पुराण एवं शस्त्रास्त्रविद्या में तुम अत्यन्त कुशल हो, फिर तुम्हारी प्रार्थना का उल्लंघन मैं कैसे कर सकता हूँ ।" और यह स्वीकारोक्ति देकर कवि ने “सम्मत्तगुणणिहाणकव्व" नामक ग्रन्थ की रचना की । यह "सम्मतगुणणिहाणकव्व"" सम्यक्त्व सम्बन्धी अत्यन्त सरस एवं सरल रचना है, जिसमें चार सन्धियाँ हैं । यह ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है । ग्रन्थ-विषय की दृष्टि से तो वह महत्त्वपूर्ण है ही, किन्तु गोपाचल एवं मालवा के मध्यकालीन जैन समाज के इतिहास की दृष्टि से भी वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रचना है। ग्वालियर - दुर्ग की ५७ गज ऊँची आदिनाथ की मूर्ति का इतिहास इस ग्रन्थ की प्रशस्ति के बिना स्पष्ट नहीं हो सकता । इसी प्रकार तोमरवंशी राजा डूंगरसिंह के राजनैतिक जीवन पर भी इस प्रशस्ति से सुन्दर प्रकाश पड़ता है । कमलसिंह की प्रेरणा से डूंगरसिंह ने ग्वालियर-दुर्ग में करोड़ों मुद्राऐं व्यय कर असंख्य जैन मूत्तियों का लगभग ३३ वर्षों तक लगातार निर्माण कराया था । ५७ गज ऊँची आदिनाथ की मूर्ति का निर्माण एवं प्रतिष्ठा कमलसिंह संघवी ने तथा उसकी प्रतिष्ठा का कार्य महाकवि रइधू ने ही किया था। इस प्रसंग का बड़ा मार्मिक चित्र उक्त ग्रन्थ की प्रशस्ति में अंकित है । धू के एक दूसरे भक्त श्रावक थे—हरसी साहू । इनको तीव्र इच्छा थी कि इनका नाम चन्द्रविमान में लिखा जाय । अतः उन्होंने कवि से सविनय निवेदन किया कि - हे महापण्डित, आप महाकवि हैं । आपने अनेक भक्त - श्रावकों के स्वाध्याय के लिए जिस प्रकार अनेक ग्रन्थों की रचना की है, उसी प्रकार कृपाकर मुझे भी 'पद्मचरित' की रचना कर दीजिए । मुझ पर अनुरागी बनकर मेरी प्रार्थना सुन लीजिए और उक्त ग्रन्थ लिखकर मेरा नाम चन्द्रविमान में अंकित करा दीजिए ।" अन्त में कवि ने उसके लिए 'पद्मचरित' का प्रणयन किया । १. Jain Education International इन पंक्तियों के लेखक ने रइधू ग्रन्थावली के अन्तर्गत इसका सम्पादन एवं अनुवाद किया है । शीघ्र ही प्रकाशित होगा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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