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________________ प्राचीन जैन शिलालेखों एवं जैनग्रन्थ प्रशस्तियों में उल्लिखित कुछ श्रावक-श्राविकायें 145 एवं अलंकार शास्त्र तथा प्रश्नोत्तररत्नमालिका" नामक नीति-शास्त्र ग्रन्थों का प्रणयन भी किया। इसकी ग्रन्थ-प्रशस्ति में अमोघवर्ष ने स्वयं लिखा है कि--"विवेक का उदय होने पर राजर्षि अमोघवर्ष ने राज्य का परित्याग कर दिया और सुधीजनों को विभूषित करनेवाली इस 'रत्नमालिका' का प्रणयन किया ।" दक्षिण भारत के अनेक शिलालेखों में सेनापति गंगराज के कार्यों की चर्चा आई है। उनके अनुसार एक ओर उसने अनेक युद्धों में शत्रुओं के छक्के छुड़ा दिये, तो दूसरी ओर वह जिनवाणी एवं जैनधर्म की भक्ति में भी पीछे न रहा । उसके पुत्र बोप्प सेनापति ने दोरसमुद्र में एक जिनालय बनवा कर उसमें पार्श्वनाथ की मूत्ति स्थापित की थी। उसके अनुसार अनेक उपाधियों से विभूषित गंगराज ने अगणित ध्वस्त जैन मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया था। गंगराज के मत से पृथिवी के सात नरक इस प्रकार हैं--(१) झूठ बोलना, (२) युद्ध में भय दिखाना, (३) परदारारत होना, (४) शरणार्थियों को शरण न देना, (५) अधीनस्थों को अपरितृप्त रखना, (६) जिन्हें पास में रखना चाहिए, उन्हें छोड़ देना, एवं (७) स्वामी से द्रोह करना। तेरहवीं सदी के अन्तिम चरण में आतंककारी मुस्लिम आक्रमणों से निपटने के लिए कुछ राज्यों ने मिलकर एक नए विजयनगर-साम्राज्य की स्थापना की थी। वि० सं० १४२० के एक जैन-शिलालेख के अनुसार विजयनगर के राजाओं में (सं० ५६१) धार्मिक निष्पक्षता की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। उसी क्रम में दक्षिण भारत के जैन शिलालेख सं० ५६६ की सूचनानुसार जैनों एवं वैष्णवों ने मिलकर वसुवि सेट्टि को संघनायक की उपाधि से विभूषित किया था। उक्त शिलालेखों में सर्वधर्म समन्वय का एक अन्य आदर्श उदाहरण भी मिलता है। एक बार बुक्कराय प्रथम के शासन-काल में जैन-मन्दिर की सीमाओं के विषय में जब हेदरनाड के लोगों और मन्दिर के आचार्यों में कलह होने लगा, तब जैनों ने इसकी शिकायत राजा बुक्कराय से की। उसने स्वयं इसका परीक्षण किया और जैनों एवं वैष्णवों को परस्पर हाथ मिलवाकर तत्काल आदेश निकाला कि "जैन-दर्शन एवं वैष्णव दर्शन में कोई भेद नहीं। जैनधर्मानुयायी भी पंचमहावाद्य बजा सकते हैं । जैनधर्म की हानिवृद्धि को वैष्णव अपनी ही हानि-वृद्धि समझें। वैष्णवों को इस विषय के शासन-पत्र समस्त बसदियों में लगाना चाहिए। जब तक सूर्य एवं चन्द्र हैं तब तक वैष्णवजन जैनधर्म की रक्षा करेंगे। जो इस नियम को तोड़ेगा, वह राजा, संघ एवं समुदाय का द्रोही माना जायगा।" जोधपुर जिले के घटयाला ग्राम के जैन-मन्दिर में वि० सं० ९१८ का एक शिलालेख मिला है। मन्दिर एवं शिलालेख का निर्माण प्रतिहार वंशी जैन सामन्त कक्कुक ने कराया था। वह प्रकृति से अत्यन्त दयालु एवं प्रजावत्सल था किन्तु शत्रुओं के लिए महाकाल के समान था। उक्त शिलालेख के अनुसार उसने प्रजाजनों की भलाई के लिए रोहिन्सकूप में सार्वजनिक बाजार का निर्माण कराया था, जिससे सैनिक एवं असैनिक वर्ग के सभी लोग लाभान्वित होते रहे। यह बाजार-निर्माण का कार्य आज के सन्दर्भ में भले ही सामान्य कार्य हो किन्तु कक्कुक के काल में राजनैतिक अस्थिरता के कारण जान-माल की सुरक्षा अत्यन्त कठिन रहती थी। बाजार के बिना जनता की अनेक कठिनाइयों का अनुभव करके ही वीर 10 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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