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________________ 130 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 प्राचीनकाल में विवाह आठ प्रकार के होते थे, उनमें ब्राह्म, दैव, आर्ष और प्राजापत्य ये धर्म विवाह कहलाते थे और असुर, गांधर्व, राक्षस और पैशाच ये चार अधर्म विवाह कहलाते थे। बुद्धिमान वर को अपने घर पर बुलाकर बहुमूल्य आभूषणों आदि के साथ कन्या देना ब्राह्म विवाह है। जिन भगवान की पूजा करने वाले सहधर्भो प्रतिष्ठाचार्य को पूजा की समाप्ति पर पूजा कराने वाला अपनी कन्या दे दे तो वह देव विवाह है। यही दोनों उत्तम प्रकार के विवाह माने गये हैं क्योंकि इनमें वर से विवाह के बदले में कुछ लिया नहीं जाता । कन्या के लिए वस्त्र या कोई ऐसी मामूली दामों की वस्तु वर से लेकर धर्मानुकूल विवाह कर देना आर्ष विवाह है । कन्या प्रदान के समय 'तुम दोनों साथ-साथ रहकर स्वधर्म का आचरण करो', ऐसे वचन कहकर विवाह कर देना 'प्राजापत्य विवाह कहलाता है । इसमें अनुमानतः वर की ओर से कन्या के साथ विवाह करने की इच्छा प्रकट होती है और सम्भवतः यह भी आवश्यक नहीं कि वह कुंआरा ही हो । कन्या को मोल लेकर विवाह करना असुर विवाह है । कन्या और वर का स्वयं निजेच्छानुसार माता-पिता की सम्मति के बिना ही विवाह कर लेना गान्धर्व विवाह है । अचेत, असहाय या सोती हुई कन्या से भोग करके विवाह करना पैशाच विवाह है । यह सबसे नीच प्रकार का विवाह है । आजकल केवल प्रथम प्रकार का विवाह ही प्रचलित है। शेष सब प्रकार के विवाह बन्द हो गये हैं। प्राचीन काल में वर या कन्या की खोज करने के मुख्य दो साधन थे--(१) राजे महाराजे अपनी कन्या के स्वयंवर का आयोजन करते जिनमें देश देशान्तरों के राजकुमार बुलाये जाते थे। कन्या उनमें से सर्वश्रेष्ठ को चुन लेती थी और बाद में उन दोनों का पाणिग्रहण होता था; (२) जन साधारण अपने पुत्र या पुत्री के विवाह योग्य होने पर योग्य सम्बन्ध की खोज के लिए धात्री तथा पुरोहित को भेज देते थे। योग्य सम्बन्ध मिलने पर विवाह का निश्चय तथा आयोजन होता था। वर्तमान काल में दोनों ही प्रकार अव्यवहार्य और अपरिपूर्ण हैं । आज पत्र पत्रिकाओं में आवश्यकता प्रकाशित कर देने से यह काम बहुत कुछ हो जाता है फिर भी लोग कन्या और वर की खोज करते ही हैं। आजकल विवाह का निश्चय करने के लिए मंगनी या तिलक का रिवाज है । जैनागमों में इस तरह के कोई उल्लेख नहीं मिलते । पाणिग्रहण का निश्चय समाज के कुछ प्रतिष्ठित व्यक्तियों के समक्ष ही करना चाहिये । यह निश्चय बहुत समय पहले से भी नहीं करना चाहिये । यदि पहले निश्चय करना भी हो तो दो माह से अधिक पहले निश्चय नहीं करना चाहिये, इससे सम्बन्ध टूटने की संभावना है। यदि विवाह की स्वीकृति हो चुकी हो और लड़की के पक्ष वाले इस पर कार्यबद्ध न रहें तो वे हानि देने के जिम्मेदार हैं । यही नियम दूसरे पक्ष वालों पर भी लागू होता है, परन्तु अब इन विषयों का निर्णय प्रचलित कानून (Indian Contract Act) के अनुसार किया जाता है। यदि विवाह के पूर्व कन्या का देवलोक हो जाय तो खर्च काटकर जो कुछ उसको ससुराल से (गहना आदि) मिला था, उसे लौटा देना चाहिये और उसे जो धन ननिहाल से मिला हो, उसके सहोदर भाइयों को देना चाहिये। १. अहं०, १२७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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