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126 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 दार्शनिक सभी तरह के ग्रन्थों का प्रचुर भंडार है। प्राकृत भाषा चूंकि बोल-चाल की भाषा थी इसलिए यह देश के नाम पर परिगृहीत हुई। महाराष्ट्री शौरसेनी, मागधी, पैशाची ये सभी प्राकृत देश के आधार पर वहाँ के परिवर्तन की मूल भूमि पर इन नामों से परिचित हुई। अनेक शिलालेख प्राकृत में ही उपलब्ध हुए। इस तरह प्राकृत साहित्य अतिशय विशाल है। मृच्छकटिक नाटक में जो प्राकृत निहित है वह आज की हिन्दी से बहुत सन्निकट है। यथा-प्राकृत पोट, पोट्ट-हिन्दो पेट, पोट, प्रा० खुण्ट =हि. खूटा, प्रा० जोहह-हि० जोहना ।
लासन ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि संस्कृत के ही धातुओं में प्राकृत के शब्द क्रमपरिवर्तन के रूप में आये हैं। डॉ० जानसन ने स्वीकार किया है कि प्राकृत भाषा का जनभाषा के साथ अवश्य तादात्म्य होगा। इसीलिए प्राकृत भाषाएँ रंगमंच पर स्वीकृत हैं।
प्रो० एच० विल्सन ने Select Specimen of the Hindu के प्रस्तावना में लिखा है कि प्राकृत किसी ऐसी बोली का प्रतिनिधित्व करती है जो कभी बोली जाती थी। उनका कहना है कि यहाँ की बोली जाने वाली भाषाओं में ऐसे परिवर्तित रूप मिलते हैं, जिनके परिवर्तन का समाधान प्राकृत व्याकरण से होता है। प्राकृत प्राचीन व्याकरण में वररुचि का मुख्यतम स्थान है। उन्होंने सभी प्राकृतों को संस्कृत से सम्बद्ध किया। उनका व्याकरण मूल संस्कृत से प्राकृत का सम्बन्ध मानता है। वस्तुतः अपशब्द के अन्तर्गत यदि प्राकृत को स्थान दिया जाय तो इसको मानने में कोई आपत्ति नहीं है। चण्डिदेव कृत प्राकृतदीपिका में लिखा है कि लोकानुसार हो नाटक आदि में महाकवियों के प्रयोग देखे जाते हैं। काव्यचन्द्रिका में भाषा का विश्लेषण करते हुए लिखा है-तद् एव वाङ्मयं विद्यात् संस्कृतम् प्राकृतं तथा। अपभ्रंशश्च मित्रश्च तस्य भेदाश्चतुर्विधाः । संस्कृतं देवतावाणी कथिता मुनिपुङ्गवः । तद्भवं तत्समं देशीत्य् अनेकम् प्राकृतं विदुः । भाषा विज्ञान के आधार पर एक तो ऐसी भाषा जो उच्चारण के नियम से आबद्ध थी वह मूलभाषा संस्कृत रही और वही भाषा नियमशून्य प्राकृत है ।
इस तरह प्राचीन आचार्यों के आधार पर ही संस्कृत मूलदैवीभाषा की अक्षुण्ण परम्परा है और प्राकृत पणियों के द्वारा गृहीत अपरिमार्जित मृघ्र भाषा है जिसका साहित्य आगमधारा के रूप में नाथ परम्परा में अवरुद्ध हो जाता है और साहित्यिक रूप देश के आधार पर परिवर्तनशील अपभ्रंश की परम्परा में हिन्दी के रूप में आज भी चला आ रहा है। प्राकृत के मूल रूप में विकास न होने के कारण यह एक सम्प्रदाय या धर्म विशेष के रूप में स्वीकृत होता है। साम्प्रदायिक भाषा कभी भी जनभाषा या अतिशय व्यवहार की भाषा नहीं हो सकती। अत: काल-क्रम में इसके परिमार्जित रूप जो देश से सम्बद्ध है वह मुल होकर अनेक देशीय भाषा की जननी है ।
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