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________________ 124 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 बाद विद्वान् व्रात्य की विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है। वहाँ कुशो राजा का अतिथि के रूप में वर्णन किया जाता है और राजा स्वयं अपने हाथ से उसका सम्मान करता है। विद्वान व्रात्य किसी का भी अतिथि हो जाय तो उनकी परिचर्या में वह दत्तचित्त हो, उनकी किसी भी इच्छा को अपूर्ण नहीं रखता था और यह सर्वार्थ सिद्ध की भूमिका थी। वर्णन में यहाँ तक लिखा गया है कि सूर्य उनके दक्षिण नयन, चन्द्र वाम नयन, अग्नि दक्षिण कर्ण और सोम वाम कर्ण है इत्यादि । दिन में पश्चिम मुख और रात्रि में पूर्वमुख अर्थात् सूर्यमुख होते हैं।' इस विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकलता है कि तपस्या प्रधान एवं ज्ञान सम्पन्न राजाओं के अतिथि स्वरूप यह व्रात्य होते थे। इससे बौद्ध एवं महाबीर की जीवन चर्चा का साम्य उपलब्ध होता है और दोनों का संघ के रूप में गमन का इतिहास साक्षी है । संघ शरण गमन, बुद्ध शरण गमन तो आज भी प्रसिद्ध है । गण धर्म का धारक प्रशस्त एक व्रात्य था । ताण्ड्य ब्राह्मण के आधार पर तो स्पष्ट अवगत होता है कि आर्य होते हुए भी वे वेदपाठी नहीं थे। आर्य भाषा भाषी होते हुए भी उनको भाषा अमार्जित थी। ताण्ड्य ब्राह्मण में यागयज्ञ विरोधी ज्ञानवादी बुद्ध व्रात्य को माना गया है । दीक्षा के विना ही वे ज्ञान की चर्चा करते थे। मैंने रुद्र से इनके सम्बन्ध का आधार नमो व्रातेम्यो, व्रातपतिभ्यः" इत्यादि शब्द के द्वारा रुद्र का निर्देश प्राप्त कर इस परम्परा का मूलाधार वहाँ अवस्थित करने का प्रयास किया है । "उत गोपा अदृश्नन्" इसके व्याख्यान में वेदोक्त संस्कार हीन यह अर्थ लिखा है रुद्र के वैदिक देवत्व की प्रतिष्ठा पुराणकाल में प्रतिष्ठित हुई है। सर्वार्थ सिद्ध की भावना जो अतिथि के रूप में उपस्थित होने पर उपस्थित की गयी है वह आज भी उनके नाम के रूप में प्रतिष्ठित है। अनिर्वाण ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है-प्राकृत युग के तार्थ हर ओर बौद्ध मे आरम्भ कर आज के नाय मम्प्रदाय एवं आधुनिक युग का आउलबाउल सभी सम्प्रदाय व्रात्यदलों का है । चिरकाल से ही ये लोग अपने तात्त्विक सिद्धान्त अमाजित प्राकृत भाषा में कहते हैं। इस तरह इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि ब्रात्यों को यह प्राकृत भाषा आज के नाथ सम्प्रदाय और आउल बाउल सम्प्रदाय तक प्राकृत भाषा के रूप में चलो आ रही है । (प्राचीन युगेर तीर्थङ्ककर ओ बौद्ध हते सुरुकरे मध्ययुगेर नाथ एवं आधुनिक युगेर आउल-बाउल पर्यन्त सवाउ प्राचीन व्रात्येर दले करे। चिरकाले एरा अमाजित प्राकृतभाषाय तत्वकथा बोले ऐसे ।२ मध्य में इन लोगों ने अपने सिद्धान्तों को प्रतिष्ठित करने के लिए संस्कृत भाषा को सिद्धान्त प्रदर्शन को भाषा माना जिससे प्राकृतभाषा उपेक्षित हुई। व्रात्यस्तोम में एक व्रात्य का नित्य सहचर मागधी माना है ।३ ज्येष्ठ व्रात्य को हो अर्हत् शब्द से निर्देश किया गया है। सूत्रकार ने भी अहत् शब्द का प्रयोग किया है, जिसे अवैदिक भाषा में १ अथर्वसंहिता १५।१०-१५।१८ २. वेदमीमांसा पृ० ९१ ३. शत० ब्रा० ५।२२।१४ ४. वेदमीमांसा पृ० ९५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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