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________________ 122 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 दशरूपक के टीकाकार धनिक ने परिच्छेद २, श्लोक ६० की व्याख्या करते हुए लिखा है - प्रकृतेः आगतं प्राकृतम् । प्रकृतिः संस्कृतम् । रुद्रट कृत काव्यालङ्कार में ११ वीं शताब्दी के विद्वान् नामिसाधु ने लिखा है "प्राकृतेति सकल जगज्जन्तूनां व्याकरणादिभिरनाहितसंस्कारः सहजो वचनव्यापारः प्रकृति, तत्र भवं सैव वा प्राकृतम् । “आरिसावयवो सिद्धं देवाणं अद्धभागहा वाणी' इत्यादि वचनाद् वा प्राक् पूर्वकृतं प्राकृतं बालमहिलादिसुबोधं सकलभाषानिबन्धभूतं वचनमुच्यते । मेघनिर्मुक्तजलमिवैकस्वरूपं तदैव च देशविशेषात् संस्करणाच्च समासादितविशेषं सत् संस्कृताधुतर-विभेदानाप्नोति । अत एव शास्त्रकृता प्राकृतमादौ निर्दिष्टं तदनु संस्कृता. दीनि । पाणिन्यादिव्याकरणोदितशब्दलक्षणेन संस्करणात् संस्कृतमुच्यते ।' आठवीं शताब्दी के विद्वान् वाक्पतिराज ने अपने ‘गउडवहौ' नामक महाकाव्य में प्राकृत भाषा को जनभाषा माना है और इस जन भाषा से ही समस्त भाषाओं का विकास स्वीकार किया है । यथा सयलाओ इमं वाया विसति एत्तो यणेति वायाओ। एंति समुदं चिय गृति सायराओच्चिय जलाइं॥' नवम शती के विद्वान् कवि राजशेखर ने 'बाल रामायण' में 'याद्योनिः किल मस्कृतस्य सुदशां जिह्वासु यन्मोदते द्वारा प्राकृत को संस्कृत की योनि-विकास स्थान कहा है ।। यद्यपि विवेचकों ने उभयपक्ष उपस्थापित किया है किन्तु यह देवी वाक् है अर्थात् जिसे अपौरुषेय या ईश्वर प्रदत्त रूप में माना गया है । भार्गव ऋषि का कथन है कि देवताओं ने इसे वाणी दो 'देवीं वाचमजनयन्त देवास्, तां विश्वरूपो पशवो वदन्ति । इसीलिए आज भी संस्कृत को दैवी वाक् या सुर वाणी के रूप में प्रदर्शित किया है। विश्व के सभी जीवों में संचरणशील यह देवो वाक् थी। समय-समय पर निरुक्तादि के द्वारा इसमें देश कालादि की दृष्टि से संस्कार किया गया। इसीलिए वैदिक काल में कहीं भी संस्कृत शब्द से भाषा का निर्देश नहीं होता है । गौ शब्द के द्वारा वाणी का निर्देश मिलता है। इसके विषय में जो वेद में प्रयोग मिलते हैं वे गौ, गिर, वाणी, वाक् है। इसी तरह अनेक शब्द अपर पर्याय के रूप में मिलते हैं किन्तु संस्कृत शब्द वहाँ नहीं है । अतः यह मानना अनुचित न होगा कि भाषा का संस्कार होने पर वह संस्कृत हो गयी और उच्चारण दोष से वही भाषा प्राकृत रही। यही कारण है कि वररुचि आदि प्राकृत वैयाकरण या भाषा वैज्ञानिक प्राकृत का मूलरूप संस्कृत में मानते हैं। सफला एता प्राकृतं वाचो विशन्तोय । इतश्च प्राकृताद्विनिर्गच्छन्ति वाचः आगच्छन्ति समुद्रमेव निर्यान्ति सागरादेव जलानि । प्राकृतेन हि संस्कृतापभ्रंशपैशाचिकभाषाः प्रसिद्ध तमेन व्याख्यायन्ते । अथ वा प्रकृतिरेव प्राकृतं शब्दब्रह्म । तस्य विकारा विवर्ता वा संस्कृतादय इति मन्यतेस्म कविः ॥९३।। २. बालरामायण ४८-४९ ३. वहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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