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________________ जैन नीतिदर्शन की सामाजिक सार्थकता 31 उठ जाता है, वैसे-वैसे स्वार्थ परार्थ का संघर्ष भी समाप्त हो जाता है। जैन विचारकों ने परार्थ या लोकहित के तीन स्तर माने हैं । १. द्रव्य लोकहित, २. भाव लोकहित और ३. पारमार्थिक लोकहित । १. द्रव्य लोकहित'---यह लोकहित का भौतिक स्तर है। भौतिक उपादानों जैसे भोजन, वस्त्र, आवास आदि तथा शारीरिक सेवा के द्वारा लोकसेवा करना द्रव्य लोकहित है। यह दान और सेवा का क्षेत्र है। पुण्य के नव प्रकारों में आहार, दान, वस्त्र दान, औषधि दान आदि का उल्लेख यह बताता है कि जैन दर्शन दान और सेवा के आदर्श को स्वीकार करता है। तीर्थकर द्वारा दीक्षा के पूर्व दिया जाने वाला दान जैन दर्शन में सामाजिक सेवा और सहयोग का क्या स्थान है, इसे स्पष्ट कर देता है। मात्र यही नहीं, महावीर से जब यह पूछा गया था कि आपकी भक्ति करने वाले और वृद्ध, ग्लान एवं रोगी की सेवा करने वाले में कौन श्रेष्ठ है तो उनका स्पष्ट उत्तर था 'सेवा करने वाला श्रेष्ठ है। जैन समाज के आज भी जन-सेवा और प्राणी-सेवा के जो अनेक कार्य किये जा रहे हैं, वे इसके प्रतीक हैं। फिर भी यह एक ऐसा स्तर है जहां हितों का संघर्ष होता है। एक का हित दूसरे के अहित का कारण बन जाता है। अतः द्रव्य लोकहित एकान्त रूप से आचरणीय भी नहीं कहा जा सकता। यह सापेक्ष नैतिकता का क्षेत्र है। भौतिक स्तर पर स्वहित की पूर्णतया उपेक्षा भी नहीं की जा सकती। यहाँ तो स्वहित और परहित में उचित समन्वय बनाना, यही अपेक्षित है । पाश्चात्य नैतिक विचारणा के परिष्कारित स्वार्थवाद, बौद्धिक परार्थवाद और सामान्य शुभतावाद का विचार-क्षेत्र लोकहित का यह भौतिक स्वरूप ही है। २. भाव लोकहित-लोकहित का यह स्तर भौतिक स्तर से ऊपर स्थित है, जहाँ पर लोकहित के जो साधन हैं वे ज्ञानात्मक या चैतसिक होते हैं। इस स्तर पर परार्थ और स्वार्थ में संघर्ष की सम्भावना अल्पतम होती है। मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ की भावनाएं इस स्तर को अभिव्यक्त करती हैं। ___३. पारमार्थिक लोकहित—यह लोकहित का सर्वोच्च स्तर है, यहाँ स्वहित और परहित में कोई संघर्ष नहीं रहता, कोई द्वैत नहीं रहता। यहाँ पर लोकहित का रूप होता है यथार्थ जीवन-दृष्टि के सम्बन्ध में मार्ग-दर्शन । यहाँ स्वयं के द्वारा अहित करना नहीं और अहित करने वाले का हृदय-परिवर्तन कर उसे सामाजिक अहित से विमुख करना। युगीन सामाजिक परिस्थितियों में जैन नीति-दर्शन का योगदान जैन आचार-दर्शन ने न केवल अपने युग की समस्याओं का समाधान किया है, वरन् वह वर्तमान युग की समस्याओं के समाधान में भी पूर्णतया सक्षम है। वस्तुस्थिति यह है कि चाहे प्राचीन युग हो या वर्तमान युग, मानव जीवन की समस्याएँ सभी युगों में लगभग समान रही हैं। मानव जीवन को समस्याएँ विषमता जनित ही हैं। वस्तुतः विषमता ही समस्या है और समता ही समाधान है । ये विषमताएँ अनेक रूपों में अभिव्यक्त होती हैं। प्रमुख रूप से १. अभिधान राजेन्द्र, खण्ड ५, पृ० ६९७ । २. अभिधान राजेन्द्र, खण्ड ५, पृ० ६९७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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