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जैन नीतिदर्शन को सामाजिक सार्थकता
29 पूर्णताएँ तो समान ही होती हैं, फिर भी तीर्थंकर को लोकहित की दृष्टि के कारण सामान्य केवली की अपेक्षा श्रेष्ठ माना गया है । जीवनमुक्तावस्था को प्राप्त कर लेने वाले व्यक्तियों के, उनको लोकोपकारिता के आधार पर तीन वर्ग होते हैं-१. तीर्थंकर, २. गणधर और ३. सामान्य केवली।
१-तीर्थकर-तीर्थकर वह है, जो सर्वहित के संकल्प को लेकर साधना मार्ग में आता है और अपनी आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त कर लेने के पश्चात् भी लोकहित में लगा रहता है। सर्वहित, सर्वोदय और सर्वलोक का कल्याण ही जिसके जीवन का ध्येय बन जाता है।
२-गणधर-सहवर्गीय हित के संकल्प को लेकर साधना-क्षेत्र में प्रविष्टि पाने वाले और अपनी आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त कर लेने के पश्चात् भी सहवर्गियों के हित एवं कल्याण के लिए प्रयत्नशील रहने वाले साधक गणधर कहलाते हैं। ममूह-हित या गण-कल्याण गणधर के जीवन का ध्येय होता है ।
३—सामान्य केवली-आत्मकल्याण को ही जिसने अपनी साधना का ध्येय बनाया होता है और जो इसी आधार पर साधना-मार्ग में प्रवृत्त होता हुआ आध्यात्मिक पूर्णता की उपलब्धि करता है, वह सामान्य केवली कहलाता है ।
साधारण रूप में विश्व-कल्याण, वर्ग-कल्याण और वैयक्तिक कल्याण की भावनाओं को लेकर तदनुकूल प्रवृत्ति करने के कारण ही साधकों की ये विभिन्न कक्षाएँ निर्धारित की गयी हैं, जिनमें विश्वकल्याण के लिए प्रवृत्ति करने के कारण ही तीर्थंकर को सर्वोच्च स्थान दिया जाता है। जिस प्रकार बौद्ध विचारणा में बोधिसत्त्व और अहंत के आदर्शों में भिन्नता है, उसी प्रकार जैन-साधना में तीर्थंकर और सामान्य केवली के आदर्शों में तारतम्य है ।
इन सबके अतिरिक्त जैन-सभ्यता में संघ (समाज) को सर्वोपरि माना गया है । संघहित समस्त वैयक्तिक साधनाओं से भी ऊपर है, विशेष परिस्थितियों में तो संघ के कल्याण के लिए वैयक्तिक साधना का परित्याग करना भी आवश्यक माना गया है। जैन-साहित्य में आचार्य कालक की कथा इसका उदाहरण है।
___ स्थानांग सूत्र में जिन दस धर्मों (कर्तव्यों) का निर्देश दिया गया है, उनमें संघ-धर्म, गण-धर्म, राष्ट्र-धर्म, नगर-धर्म, ग्राम-धर्म और कुल-धर्म की उपस्थिति इस बात का सबल प्रमाण है कि जैन-दृष्टि न केवल आत्महित या वैयक्तिक विकास तक सीमित है, वरन् उसमें लोकहित या लोक-कल्याण का अजस्र प्रवाह भी प्रवाहित हो रहा है ।
यद्यपि जैनाचारदर्शन लोकहित, लोकमंगल की बात कहता है, लेकिन उसकी एक शत है कि परार्थ के लिए स्वार्थ का विसर्जन किया जा सकता है, लेकिन आत्मार्थ का नहीं।
१. योगबिन्दु २८५-२८८ । २. योगबिन्दु २८९ । ३. योगबिन्दु २९० । ४. निशीथचूणि गा० २८६० । ५. स्थानांग १०७६० ।
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