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जैन तर्कशास्त्र में निविकल्पक ज्ञान प्रमाण की मीमांसा
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नहीं है । यदि निश्चयात्मक होने से सविकल्पक ज्ञान को वलवान् माना जाता है तो प्रश्न होता है कि वह अपने स्वरूप में निश्चयात्मक है अथवा अर्थ के स्वरूप के विषय में निश्वयात्मक है ? अपने विषय में सविकल्पक ज्ञान को निश्चयात्मक नहीं माना जा सकता है, क्योंकि बौद्धों के यहाँ स्वसंवेदन प्रत्यक्ष का जो लक्षण बतलाया गया है उससे विरोध आता है । ज्ञान को अर्थ के विषय में निश्चयात्मक मानने पर एक ही विकल्प में निश्चय रूप और अनिश्चय रूप दो स्वभावों का प्रसंग प्राप्त होता है, क्योंकि उसे अपने विषय में अनिश्चयात्मक और अर्थ के विषय में निश्चयात्मक मानना पड़ेगा। दूसरी बात यह है कि जो विकल्प ज्ञान अपना निश्चय नहीं कर सकता है वह अर्थ का निश्चय किस प्रकार करेगा ?
एकत्वाध्यवसाय ।
बौद्धों ने निर्विकल्पक और सविकल्पक ज्ञानों में भी युगपद् वृत्ति ( लघुवृत्ति) के कारण एकत्व का अध्यवसाय माना था । अतः यहाँ पर प्रश्न होता है कि एकत्व अध्यवसाय क्या है ? क्या एक ही वस्तु का विषय करना अथवा एक के द्वारा दूसरे की वस्तु को विषय करना ? एक ही वस्तु को विषय करने रूप एकत्वाध्यवसाय तो उन दोनों ज्ञानों में हो नहीं सकता है, क्योंकि निर्विकल्पक ज्ञान का विषय सुलक्षण और सविकल्पज्ञान का विषय सामान्य लक्षण है । अतः दोनों ज्ञानों का विषय भिन्न-भिन्न होने के कारण एकत्वाध्यसाय संभव नहीं है । ' इसी प्रकार एक के द्वारा दूसरे को वस्तु को विषय करने रूप एकत्वाध्यवसाय भी संभव नहीं है, क्योंकि कभी भी किसी ज्ञान की अपने विषय को छोड़कर दूसरे ज्ञान के विषय में प्रवृत्ति नहीं देखी जाती है । इसके अतिरिक्त एक बात यह भी है कि एक दूसरे का परस्पर में अध्यारोप असंभव होने से उसे एकत्वाध्यवसाय नहीं कहा जा सकता है । यहाँ भी प्रश्न होता है कि विकल्प में निर्विकल्प का अध्यारोप किया जाता है अथवा निर्विकल्प में सविकल्प का ? यदि विकल्प में निर्विकल्प का व्यवहार किया जाता है तो समस्त व्यवहारों का उच्छेद हो जायेगा एवं सभी ज्ञानों में निर्विकल्पकत्व स्वरूप होने का प्रसंग प्राप्त होता है । अब यदि निर्विकल्प में विकल्प का श्रध्यारोप किया जाता है तो निर्विकल्प का उच्छेद होने से समस्त ज्ञान सविकल्प रूप हो जायेंगे । इस प्रकार विस्तृत विमर्श के पश्चात् भी हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि निर्विकल्प ज्ञानों में एकत्वाव्यवसाय संभव नहीं है ।
यदि किसी प्रकार से उन दोनों ज्ञानों में एकत्वाध्यवसाय है तो प्रश्न होता है कि इस एकत्वाध्यवसाय को कौन जानता है ? क्या निर्विकल्प ज्ञान या . सविकल्प ज्ञान या कोई तीसरा ज्ञान ? निर्विकल्प ज्ञान उपर्युक्त दोनों ज्ञानों के एकत्वाध्यवसाय को नहीं जानता है क्योंकि वह स्वयं अध्यवसाय से रहित है अर्थात् विचारक नहीं है । जो स्वयं अभिचारी है उसे ज्ञाता मानने पर भ्रांति
१.
प्र० क० मा०, १३, पृ० ३० । २. वही, पृ० ३० ।
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