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हिन्दू तथा जैन साधु-प्राचार
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दिखलाई पड़ती है । यहाँ भिक्षा से मिले हुए अक्ष के सम्बन्ध में यह नियम लागू नहीं होता । आहार-भेद
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पर, इनके बीच आहार ग्रहण में कुछ अन्तर दीखता है, जैसे- हिन्दूसाधु वन के कालपक्व कन्द, मूल, फल आदि से जीवन-निर्वाह करने का प्रयत्न करते हैं तथा उसमें जब किसी तरह की बाधा आती है, तभी वे ग्राम की शरण लेते हैं, अन्यथा नहीं। पर, जैन साधुनों के साथ ऐसी बात नहीं । वे अपने हाथों कुछ भी ग्रहण करना अनुचित' समझते हैं । इस कारण उन्हें स्वभावतः भिक्षा के लिये ग्राम की शरण लेनी ही पड़ती है । किन्तु जैन साधु ग्राम में जाकर भी दीनतापूर्व किसी से भिक्षा की यदि सम्मानपूर्वक भिक्षा न मिल सकी तो फिर ज्यों-के-त्यों किये ही निर्विकार भाव से लौट जाते हैं ।
यहाँ ध्यान रहे कि याचना नहीं करते । बिना आहारग्रहण
भिक्षा ग्रहण में सावधानी
उपर्युक्त दोनों ही वर्गों के साधु भिक्षा ग्रहण के क्रम में यह सावधानी रखते हैं कि जिस द्वार पर कोई याचक, भिखारी, अन्य साधु, यहाँ तक कि कुत्ते अथवा बिल्ली आदि पशु स्थित हों, उस दरवाजे को छोड़कर वे आगे बढ़ जाते हैं ।
भिक्षापात्र में भेद
इन साधुओं में एक भेद पात्र ग्रहण करने का भी है, जैसे - हिन्दू साधु तूवी, कपाल अथवा पाणिपात्र, इनमें से कोई पात्र भिक्षा ग्रहण करने के लिये स्वीकार कर सकते हैं । पर जैन साधु के लिए मात्र पणिपात्र ही विहित है । वे उसके सिवा और किसी तरह का पात्र भिक्षा ग्रहण करने के लिए साथ में नहीं रखते ११ ।
साधु की शास्त्रीय योग्यताएँ
दोनों ही वर्गों के साधुओं के लिए श्रुति, आगमादि धर्मग्रन्थों का पारगामी होना आवश्यक माना गया है १२, क्योंकि बिना शास्त्रीय ज्ञान के कोई साधु सावद्य तथा अनवद्य वस्तुओं का विवेचन सही ढंग से करेंगें कैसे ?
७.
११.
१२.
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भागवत ० एकादश स्कन्ध, प्र० १८, श्लो० ६ । मनु० अ० ६, श्लो० २७, २८. याज्ञ० वानप्र० श्लो० ५४, ५५.
८.
९.
मनु० अ० ६, श्लो० - ५२ । आचारांग - नवम अध्ययन | १०. मनु० अ० ६, श्लोक ५४
मूलाचार, अन० भा० गाथा ४५
मनु० अ० ६, श्लो०
उत्तराध्ययन ३५, १०-१६.
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२९, ३० तथा मूलाचार अन० भा० ६५
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