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________________ 250 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 परिहार कर ब्रह्म विषयक वाणी का ही प्रयोग करना अपेक्षित मानता है। वह परिव्राजक सदा ब्रह्मभाव में तल्लीन, योगासन-स्थित, निरपेक्ष, निरामिष एवं प्रात्मसाहाय्य२६ से ही मोक्षसुख की कामना रखता हुआ इस संसार में विचरण करता है। रागवत्ति द्वारा भिक्षा-प्राप्ति की निन्दा ब्रह्मलीन विरक्त साधुओं के लिये मनु ने भूकम्प आदि उत्पातों की संभावना, अङ्गस्फुरण आदि के फल, सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार हस्तरेखा आदि के परिणाम यहाँ तक कि शास्त्रोपदेश आदि के कथन द्वारा भी भिक्षा प्राप्त२७ करने की प्रवृत्ति की निन्दा की है। भिक्षा-ग्रहण में सावधानी भिक्षकों को भिक्षा के लिये जाते समय सावधान करते हुए मनु ने स्पष्ट कह दिया है कि जिस दरवाजे पर अन्य तपस्वी, भोजनार्थी ब्राह्मण, यहाँ तक कि पक्षी, कुत्ते अथवा क्षुद्रातिक्षुद्र कोई याचक२८ भी खड़ा हो वहाँ कभी भी जाना उचित नहीं। मुनि का भिक्षापात्र२९ तूंबी, काष्ठ, मृत्तिका अथवा बाँस आदि के खण्ड से निर्मित एवं निश्छिद्र होना चाहिये । विषयाशक्ति से बचने के लिये साधुओं को दिन में एक बार ही भिक्षा-ग्रहण करनी चाहिये । मनु की दृष्टि साधु-आचार की हिंसात्मक प्रवृत्ति की ओर सदा सजग रही है, क्योंकि भारतीय साधु-परम्परा पूर्णतः अहिंसा की भित्ति पर ही टिकी हुई है। भिक्षा ग्रहण के लिये उपयुक्त समय मुनि के भिक्षा-ग्रहण-काल का स्पष्टीकरण करते हुए मनु ने साफ-साफ बतला दिया है कि जब रसोई की उष्णता १ समाप्त हो चुकी हो, मूसल कूटने का शब्द तक न सुनाई देता हो, रसोई की आग भी बुझ चुकी हो एवं प्रायः सब लोग भोजन भी कर चुके हों, तब साधु को भिक्षा-ग्रहण के लिये प्रस्थान करना चाहिये । साधु का मानसिक संतुलन तत्पश्चात् भोजन के मिल जाने पर तपस्वी न प्रसन्न २ हो और न अप्राप्ति की स्थिति में दुःखी हो। दाता में ममत्व की प्रवृत्ति से बचने के लिये साधु सत्कारपूर्वक३३ दी गयी भिक्षा को स्वीकार न करे। वह मुनि अल्पाहार एवं एकान्तवास के द्वारा रूपादि विषयों से अपनी इन्द्रियों को निवृत्त करे, क्योंकि इन्द्रिय-निरोध, राग-द्वेष के क्षय एवं सव प्राणियों में अहिंसा की प्रवृत्ति३४ २६. मनु० अध्याय ६।४९. ३१. मनु० अध्याय ६५६. , ६।५०. ३२. , , ६।५७. २८. , , ६।५२. २९. , , ६१५४. ३४. , , ६।५९,६०. ३०. , , ६।५५. له mr mm ". , ६।५८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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