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________________ विदेशी विद्वानों का जैनविद्या को योगदान 237 विवेचन करने वाला डब्ल्यू० क्लर्क का लेख 'मागधी एण्ड अर्धमागधी',' सन् १९४४ ई० में प्रकाश में आया । १९४८ ई० में नार्मन ब्राउन ने जैनमहाराष्ट्री प्राकृत और उसके साहित्य का परिचय देनेवाला 'जैन महाराष्ट्री प्राकृत सम केनिकल मेटेरियल इन' नाम से एक लेख लिखा । इस शताब्दी के छठे दशक में प्राकृत के साहित्यिक ग्रन्थों पर भी पाश्चात्य विद्वानों ने दृष्टिपात किया । 'कुवलयमालाकहा' की भाषा ने विद्वानों को अधिक आकृष्ट किया । सन् १९५० में अल्फड मास्तर ने 'ग्लनिंग्स फ़ाम द कुवलयमाला' नामक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने ग्रन्थ की १८ देशी भाषाओं पर प्रकाश डाला। दूसरे विद्वान् जे० क्यूपर ने 'द पेशाची फागमेन्ट आफ द कुवलयमाला' में ग्रन्थ की भाषा की व्याकरण-मूलक व्याख्या प्रस्तुत की। प्राकृत भाषा के अध्ययन के इस प्रसार के कारण विश्व की अन्य भाषाओं के साथ भी उसकी तुलना की जाने लगी। प्रसिद्ध भाषाशास्त्री ज्यूल्स ब्लाख ने अपने 'प्राकृत Cia लैटिन guidem लैंग्वेज' नामक लेख में प्राकृत और लैटिन भाषा के सम्बन्धों पर विचार किया है। अपभ्रंश भाषा का अध्ययन बीसवीं शदी के प्रारम्भ तक प्राकृत और अपभ्रंश में कोई विशेष भेद नहीं माना जाता था। किन्तु पाश्चात्य विद्वानों की खोज एवं अपभ्रंश साहित्य के प्रकाश में आने से अव ये दोनों भाषाएं स्वतन्त्र रूप से अस्तित्व में आ गयी है और उन पर अलग-अलग अध्ययन-अनुसंधान होने लगा है । अपभ्रंश भाषा और साहित्य के क्षेत्र में अब तक हुए अध्ययन और प्रकाशन का विवरण डा० देवेन्द्र कुमार शास्त्री ने परिश्रमपूर्वक स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया है। उससे ज्ञात होता है पाश्चात्य विद्वानों ने अपभ्रंश भाषा का भी पर्याप्त अध्ययन किया है। रिचर्ड पिशल ने प्राकृत व्याकरण के साथ अपभ्रंश भाषा के स्वरूप आदि का भी अध्ययन किया। १८८० ई० में उन्होंने 'देशोनाममाला' का सम्पादन कर उसे प्रकाशित कराया, जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि अपभ्रंश भाषा जनता की भाषा थी और उसमें साहित्य भी रचा जाता था। आपके मत 9. Journal of the American Oriental and African Studies, No. 8 p. 681-683, London, 1936. २. के० एम० मुन्शी स्वर्ण महोत्सव ग्रन्थ, भाग ९, पृ० २७-३२. 3. Bulletin of the school of oriental and African studies, Vol. 13, No. 2, 4. ४. Indo-Ironian Journal, Vol. 1. No. 1 1957. 4. Journal of the linguistic society of America, Vol. 29. No. 2, Part 1 2, April-June 1953. ६. डा० डी० के शास्त्री-'अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध, प्रवृत्तियाँ'-दिल्ली, १९७२, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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