________________
194 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2
उक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त कवि द्वारा विरचित महापुराण, सुदंसणचरिउ (सुदर्शनचरित), पज्जुण्णचरिउ (पद्युम्न चरित), भविसयतचरिउ (भविष्यदत्तचरित), करकंडचरिउ (करकंडुचरित) प्रभृति ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं, किन्तु उनका अन्वेषण कार्य जारी है। रइधू-साहित्य की विशेषताएं:
रइधू-साहित्य की सर्वप्रथम विशेषता है उसकी विस्तृत आद्यन्त्य प्रशस्तियाँ । कवि ने अपने प्रायः सभी ग्रन्थों के आदि एवं अन्त में प्रशस्तियों का अंकन किया है, जिनके माध्यम से कवि ने समकालीन साहित्यिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों पर सुन्दर प्रकाश डाला है। इन प्रशस्तियों से विदित होता है कि तोमरवंशी राजा डूंगरसिंह एवं कीतिसिंह तथा चौहानवंशी राजा रुद्रप्रताप, कवि के परमभक्त तथा साहित्य एवं कलारसिक थे। राजा डूंगरसिंह तथा उनके पुत्र राजा कीतिसिंह ने राज्य की कोटि-कोटि मुद्राएँ व्यय करके तैतीस वर्षों तक लगातार अगणित जैन मूर्तियों का निर्माण गोपाल-दुर्ग में करवाया था। उनमें से कई मूर्तियाँ विशाल हैं (एक मूर्ति जो ५७ फीट ऊँची है)। संख्या, विशालता एवं कला-वैभव में वे अनुपम हैं।
इसी प्रकार चन्द्रवाडपट्टन (याधुनिक चन्दुवार, जिला फिरोजाबाद, उप्र०) निवासी श्री कुन्थुदास नगरसेठ ने भी कवि की प्रेरणा से होरे, मोती, माणिक्य की अनेक मूर्तियों का निर्माण कराकर पंचकल्याणक प्रतिष्ठाएँ की थीं। उपलब्ध भारतीय इतिहास में मूर्तिकला-सम्बन्धी उक्त घटनाओं की चर्चा नहीं की गई है। ऐसा क्यों हुआ? यह कारण अज्ञात है। किन्तु अब रइधू-साहित्यप्रशस्तियों के आधार पर मध्यकालीन भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन की आवश्यकता है।
प्रशस्तियों की दूसरी विशेषता यह है कि उनमें काष्ठासंघ, माथरगच्छ की पुष्करगण शाखा के अनेक भट्टारकों की क्रमबद्ध परम्परा प्राप्त है। कवि ने देवसेन, विमलसेन, धर्मसेन, भावसेन, सहस्रकीति, गुणकीति, यश-कीर्ति, श्रीपालब्रह्म, खेमचन्द्र, मलयकीर्ति, गुणभद्र, विजयसेन, क्षेमकीर्ति, हेमकीर्ति, कमल. कीति, शुभचन्द्र एवं कुमारसेन के उल्लेख किए हैं। यद्यपि ये उल्लेख संक्षिप्त एवं प्रसंगप्राप्त हैं किन्तु उनके क्रम एवं समय-निर्धारण तथा उनके साधनापूर्ण कार्यों को समझने के लिए वे महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ-सामग्री प्रस्तुत करते हैं।
___ रइधू ने पूर्ववर्ती अपभ्रंश कवियों में चउमुह (चतुर्मुख) द्रोण, ईशान, स्वयम्भू, पुष्पदंत्त, धनपाल, वीर, धवल, धीरसेन, पविषेण, सुरसेन, दिनकरसेन तथा संस्कृत कवियों में देवनन्दि, जिनसेन (प्रथम और द्वितीय) एवं रविषेण के उल्लेख किये हैं। अपभ्रश एवं हिन्दी के अनुसन्धित्सुओं के लिए धीरसेन, पविषेण, सुरसेन एवं दिन करसेन इन चार कवियों के नाम नवीन हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org