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182 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 दिया। दूसरे प्रयत्न में स्वार्थिक प्रत्यय का विधान कर देशी तथा म्लेच्छ भाषाओं से शब्दों को उधार लेकर अपनाने की तथा रचाने-पचाने की एक नई रीति को ही जन्म दिया। इन दोनों ही कार्यों से संस्कृत का शब्द-भाण्डार विशाल हो गया और भाषा स्थिर तथा निश्चित हो गयी। सम्भवतः इसी ओर लक्ष्य कर मीमांसादर्शन में शबरमुनि कहते हैं कि जिन शब्दों को आर्य लोग किसी अर्थ में प्रयोग नहीं करते, किन्तु म्लेच्छ लोग करते हैं; यथा, पिक, नेम, सत, तामरस, आदि शब्दों में सन्देह हैं। ऋग्वेद में प्रयुक्त कई शब्द मुण्डा भाषा के माने जाते हैं । उदाहरण के लिए कुछ शब्द हैं :
(१) कपोत-दुर्भाग्य दायक (ऋग्वेद १०,१६५,१), लांगल-हल (ऋग्वेद), वार-घोड़े की पूंछ (ऋग्वेद १,३२,१२), मयूर (ऋग्वेद १,१९१,१४), शिम्बल-सेमल पुष्प (ऋग्वेद ३,५३,२२) इत्यादि। जॉ प्रजिलुस्की ने ऐसे अनेक शब्दों की सूची दी है।२ काल्डबेल ने भी संस्कत में अधिगहीत ऐसे अनेक शब्दों की एक लम्बी सूची विस्तृत विवरण के साथ दी है। यद्यपि संस्कृत वैयाकरणों की दृष्टि में इस प्रकार के शब्द तथा देशी उपादानों के सम्बन्ध में कोई दृष्टि नहीं थी और न उनमें से किसी ने इस बात का विचार ही किया था कि कितने शब्द या उनके मूल रूप (धातु) देशी हैं और कौन से आगत शब्द विदेशी हैं। परन्तु काल्डवेल, गुण्डर्ट, सिलवां लेवी, प्रजिलुस्की, अमृत रो और ब्लमफील्ड आदि विद्वानों को खोजों से अव यह निश्चित हो गया है कि भारतीय आर्यभाषाओं में बहुत बड़ी मात्रा में विदेशी उपादान लक्षित होते हैं। ब्लमफील्ड ने कुछ शब्दों के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला था कि पालिप्राकृत में प्राक्-वैदिक बोलियों के शब्द-रूप निहित हैं । वेदों में शिष्ट भाषा का प्रयोग किया गया है । वैदिक युग की बोलचाल की भाषा प्राकृत ही थी, जो कुछ बातों में संहिताओं की साहित्यिक भाषा से भिन्न थी। अनेक वैदिक युग की बोलियों के शब्द आज भी विभिन्न प्रदेशों में प्रचलित हैं। इन प्राकृत बोलियों की एक प्रमुख विशेषता 'देशी' शब्दों की बहुलता है। ऋग्वेद आदि में प्रयुक्त वंक (वक्र), मेह (मेघ), पुराण (पुरातन), तितउ (चालनी), जूर्ण (जना, पुराना), उलूखल, (उदूखल, ओखली), उच्छेक (उत्सेक) और अजगर आदि प्राकृत बोलियों के शब्द उपलब्ध होते हैं। इन देशी शब्दों की ग्रहणशीलता 'देशी' की प्राचीनता को सिद्ध करती है। ज्यूल ब्लॉख ने भी
'चोदितं तु प्रतीयेत अविरोधात् प्रमाणेन ।” "अथ यान्शब्दान् आर्या न कस्मिश्विदर्थे आचरति म्लेच्छास्तु कस्मिश्चित् प्रयुञ्जते यथा-पिक-नेम सत-तामरस आदि शब्दाः तेषु सन्देहः।" ---शबरभाष्य, अ० १,
पा० ३, सू० १० अ० ५. २. द्रष्टव्य है : प्रि-आर्यन एण्ड प्रि-ट्रैविडियन, पृ० ९-१०. ३. रॉवर्ट काल्डबेल : ए कम्पेरेटिव ग्रैमर व द ट्रैविडियन आर साउथ-इण्डियन __ फेमिली ऑव लैंग्वेजेज, मद्रास, तृतीय संस्करण, १९६१, पृ० ५६७-५८८.
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