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________________ 180 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 किया गया है । यद्यपि उनकी रचनाएँ अभी तक उपलब्ध नहीं हो सकी हैं, किन्तु मार्कण्डेय ने “प्राकृतसर्वस्व " में शाकल्य और कोहल के साथ ही भरत, वररुचि, भामह और वसन्तराज का विशेष रूप से उल्लेख किया है । माण्डव्य का रामतर्कवागीश ने और कपिल का रामशर्मा तथा मार्कण्डेय ने नामोल्लेख किया है' । यद्यपि प्राकृत के प्राच्य शिलालेख कम मिलते हैं, पर प्रवृत्ति-भेद से डा० मेहन्दाले ने दक्षिणी, पश्चिमी, मध्यदेशीय और प्राच्य भेद माने हैं । भौगोलिक दृष्टि से इस प्रकार के चार भेद प्रवृत्तिगत भिन्नता के कारण अत्यन्त प्राचीनकाल से बरावर आज तक बने हुए हैं। प्राचीन वैयाकरणों ने भी इन भेदों का उल्लेख किया है३ । भारतीय आर्यभाषाओं के इतिहास को तीन अवस्थाओं में विभक्त करने का एक क्रम प्रचलित हो गया है । वास्तव में ये अवस्थाएँ एक ही भाषा - प्रवाह की तीन विभिन्न युगीन स्थितियाँ हैं जो नाम रूपों के भेद से अलग-अलग नामों अभिहित की गयीं । ऐतिहासिक काल-क्रम की दृष्टि से बोलियों की विभिन्न अवस्थाओं का विवेचन करना एक भाषाविद् का कार्य है । डॉ० ए० एम० घाटगे ने क्षेत्रीय भेदों के अनुसार उत्तर-पश्चिम में उपलब्ध अशोक के शिलालेख मानसेहरा और शाहबाजगढ़ी, खरोष्ट्री धम्मपद की प्राकृत वोली तथा पेशाची और उसकी सम्भावित उपबोलियाँ, पूर्व में गंगा और महानदी की तराई में उपलब्ध अशोक के शिलालेख, सतनुक के रामगढ़ - शिलालेख तथा नाटकों में प्रयुक्त मागधी प्राकृत और उसके उपविभाग, पश्चिम में गिरनार, बौद्ध-साहित्य की भाषा पालि, सातवाहन तथा पश्चिमीय क्षत्रप राजाओं के शिलालेखों को प्राकृत और महाराष्ट्री प्राकृत, मध्यदेश में शौरसेन और पूर्व की ओर जैनागमों की अर्धमागधी एवं तादृश अशोकशिलालेखीय बोली परिलक्षित होती है । किन्तु इस विभाजन में कुछ बोलियाँ छट जाती हैं । अतएव ऐतिहासिक कालक्रमानुसार किया गया वर्गीकरण अधिक अच्छा और सुनिश्चित है । प्राचीनतम अवस्था में अनेक शिलालेख, पालि, अर्धमागधी और पैशाची की गणना की जाती है । परवर्ती अवस्था में शौरसेनी, मागधी, जैन महाराष्ट्री और जैन शौरसेनी निर्दिष्ट की गयी हैं । अनन्तर उत्तरकालिक विकास में महाराष्ट्री प्राकृत और विभिन्न अपभ्रंश बोलियाँ आती हैं । अशोक के लगभग चौंतीस अभिलेख मिलते हैं । अशोक के शिलालेखों के पैशाची, मागधी और शौरसेनी प्राकृत की प्रवृत्तियाँ १. डॉ० सत्यरंजन बनर्जी फ्रेग्मेण्ट्स ऑव द अलिएस्ट प्राकृत मेरियन्स, श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव ग्रन्थ, भा० १, १९६८, पृ० २७० -२७४. डॉ० एम० ए० मेहन्दाले : हिस्टारिकल ग्रैमर ऑव इन्स्क्रिप्शनल प्राकृत्स, परिचय, पृ० १५. २. ३. ४. Jain Education International द्रष्टव्य है : निरुक्त ( यास्क ) द्वितीय अध्याय, पष्ठ पाद. डॉ० ए० एम० घाटगे : हिस्टारिकल लिंग्विस्टिक्स एन्ड इण्डो-आर्यन लैंग्वेज, बम्बई, १९६२, पृ० ११२. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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