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________________ 178 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 विना नहीं रहता कि आद्य लोक-साहित्य गीतियों में निवद्ध रहा होगा । मौखिक रूप में गीतियों का प्रचलन सहज तथा सुकर है । 'प्राकृत' का एक निश्चित भाषा के रूप में विस्तृत विवरण हमें आचार्य. भरत मुनि के 'नाट्यशास्त्र' में मिलता है । प्राकृत के सम्वन्ध में उनका विवरण इस प्रकार है : (१) रूपक में वाचिक अभिनय के लिए संस्कृत और प्राकृत दोनों पाठ्य लोकप्रचलित हैं । इन दोनों में केवल यही अन्तर है कि संस्कृत संस्कार ( संवारी) की गई भाषा है और प्राकृत संस्कारशून्य अथवा प्रसंस्कृत भाषा है । कुमार, आपशील आदि वैयाकरणों के द्वारा जिस भाषा का स्वरूप नियत एवं स्थिर कर दिया गया है वह 'संस्कृत' है, किन्तु जो अनगढ, देशी शब्दों से भरित एवं परिवर्तनशील है वह 'प्राकृत' है । इससे यह भी पता लगता है कि वास्तव में भाषा का प्रवाह एक ही था, किन्तु समय की धारा में होनेवाले परिवर्तनों के कारण प्राकृत लोकजीवन का अनुसरण कर रही थी जबकि संस्कृत व्याकरणिक नियमों से अनुशासित था । अभिनवगुप्त ने 'नाट्यशास्त्र' की विवृति में इसी तथ्य को स्पष्ट किया है ।" : (२) आचार्य भरतमुनि ने वैदिक शब्दों से भरित भाषा को अतिभाषा, संस्कृत को आर्यभाषा और प्राकृत को जातिभाषा के नाम से अभिहित किया है । " जातिभाषा से उनका अभिप्राय जनभाषा से है । वोलियों के रूप में स्पष्ट ही सात तरह की प्राकृतों का निर्देश किया गया है । ३ इनके नाम हैं : मागधी, अवन्तिका, प्राच्या, शौरसेनी, अर्धमागधी, वाल्हीक और दाक्षिणात्य | वास्तव में बोलियों के ये भेद प्रादेशिक आधार पर किये गये हैं । " प्राकृतकल्पतरु " में भी प्रथम स्तबक में शौरसेनी, द्वितीय स्तवक में प्राच्या, आवन्ती, बाल्हीकी, मागधी, अर्धमागधी और दाक्षिणात्या का विवेचन किया गया है । इस विवेचन से यह भी स्पष्ट होता है कि मूल में पश्चिमी और पूर्वी दो प्रकार के भाषा विभाग थे | वोलियाँ इनसे किंचित् भिन्न थीं । रामशर्म ने विभाषाविधान नामक तृतीय स्तबक में शाकारिकी, चाण्डालिका, शाबरी, आभीरिका, १. २. ३. एतदेव विपर्यस्तं संस्कारगुणवर्जितम् । विज्ञेयं प्राकृतं पाठ्यं नानावस्थानतरात्मकम् ॥ - नाट्यशास्त्र, अ०१७, श्लो० २. संस्कृतमेव संस्कारगुणेन यत्नेन परिरक्षणरूपेण वर्जितं प्राकृतं प्रकृतेरसंस्काररूपायाः आगतम् । नन्वपभ्रंशानां को नियम इत्याह नानावस्थान्तरात्मकम् ... देशी विशेषेषु प्रसिद्धया नियमितमित्येव ।” तथा - "देशीपदमपि स्वरस्यैव प्रयोगावसरे प्रयुज्यत इति तदपि प्राकृतमेव, अव्युत्पादितप्रकृतेस्तज्जनप्रयोज्यत्वात् प्राकृतमिति केचित् । " - विवृति (अभिनवगुप्त ). नाट्यशास्त्र, १७, २७. मागध्यवन्तिजा प्राच्या शौरसेन्यधर्मागधी । वाल्हीका दाक्षिणात्या च सप्तभाषाः प्रकीर्तिताः ॥ Jain Education International - नाट्यशास्त्र, अ० १७, श्लो० ४९. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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