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________________ 176 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 प्रचुरता से मिलते हैं। प्राकृत में भी इस तरह के शब्द-रूप विपुल मात्रा में मिलते हैं। (४) ल्हमन ने प्राग्भारोपीय ध्वनि-प्रक्रिया का विचार करते हुए निदिष्ट किया है कि व्यतिरेकी ध्वनिप्रक्रियात्मक प्रामाणिक स्रोतों का निश्चय करने में एक आक्षरिक अपश्रुति भी है। सामान्य रूप से स्वरध्वनि के परिवर्तन को अपश्रुति (ablaut) कहते हैं। अपश्रुति मात्रिक और गुणीय दोनों प्रकार की कही गई है । प्राग्भारोपीय ध्वनि-प्रक्रिया में एक पद-ग्राम में विविध स्वर ध्वनिग्रामों के परिवर्तन सभी भारोपीय बोलियों में लक्षित होते हैं और यही कारण है कि वे बोलियाँ भारोपीय भाषा की मूल स्रोत हैं।' (५) अशोक के शिलालेखों तथा पालि-ग्रन्थों के मूल अंशों में 'ऋ' और 'ल' स्वर उपलब्ध नहीं होते। वैदिक कालीन वोलियों की विकसित अवस्था में घोषभाव की प्रक्रिया का पता भी यहीं से लगता है। अवेस्ता में कहीं-कहीं 'ऋ' के स्थान पर 'र' दिखलाई पड़ता है; यथा : रतूम्, गरमम्, दरगम्, आदि । इसका कारण स्वरभक्ति कहा जाता है। स्वरभक्ति पालि, प्राकृत और अपभ्रंश में भी पाई जाती है। ___टो० बरो के अनुसार ईरानी में भारत-यूरोपीय र, ल् विना किसी भेद के र के रूप में मिलते हैं। ऋग्वेद की भाषा में भी मुख्यतः यही स्थिति है । किन्तु वास्तविकता यही है कि ईरानी, वैदिक, संस्कृत और पालि-प्राकृत में ल और र दोनों मिलते हैं। ऋग्वेद की भाषा में 'र' की मुख्यता होने का कारण यही कहा जा सकता है कि ऋग्वैदिक बोली की मूलाधार उत्तर-पश्चिमी प्रदेश में था, जब कि शास्त्रीय भाषा मध्य देश में बनी थी। इन दोनों का मूल विभाजन इस तरह का रहा होगा कि पश्चिमी विभाषा में र् ठीक उसी तरह ल हो जाता होगा, जिस तरह ईरानी में (क्योंकि यह ईरानी के पास थी और साथ ही सम्भवतः परवर्ती प्रसार की धारा का प्रतिनिधित्व करती थी), जबकि अधिक पूर्वी विभाषा मूल भेद को सुरक्षित रखे थो२ । सभी प्राकृत भाषाएँ सामान्य रूप से व्याकरणिक तथा कोशीय प्रवृत्तियों में वैदिक भाषा की श्रेणी में हैं जिनमें प्राप्त होनेवाली विशेषताएँ संस्कृत में नहीं मिलती। अतएव प्राकृत भाषाओं की जो अन्विति मध्ययुगीन तथा नव्य भारतीय आर्य वोलियों से है उससे कम किसी प्रकार वैदिक से नहीं हैं३ । इस प्रकार अवेस्ता, वैदिक और प्राकृत भाषाओं में कुछ बातों में साम्य परिलक्षित होता है, जिससे इन भाषाओं में एक अन्विति तथा एकरूपता भली-भाँति जान पड़ती है। १. विन्फ्रेड पी० ल्हेमन : प्रोटो-इण्डो-युरोपियन फोनोलाजी, पांचवां संस्करण, १९६६, पृ० १२. २. टो० बरो : द संस्कृत लैंग्वेज, अनु० डॉ० भोलाशंकर व्यास, १९६५, वाराणसी, पृ० ९८-९९. ३. आर० पिशेल : कम्पेरेटिव ग्रैमर आव द प्राकृत लैंग्वेज, अनु० सुभः झा, हि० सं०, १९६५, पृ० ४-५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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