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________________ 138 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 गंध लिए है फिर भी उनका लक्ष्य आध्यात्मिक ही था, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता । प्रेम तथा स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों को बार-बार चर्चा सिद्धों के उद्गारों में हुई है । काह्नपा तो खुलकर कहते हैं कि मंत्र-तंत्र के पचड़े में न पड़ो। अपनी गृहणी के साथ केलि करो । भला जब तक तुम अपनी गृहणी के साथ केलिन करोगे तब तक क्या पंचवण में बिहार कर सकोगे ?" सरहपा ने घर ही में रहकर अपनी योगिनी के साथ रमण करने की सलाह दी है । अतः यह स्पष्ट है कि 'पाहुड़ दोहा' में व्यक्त प्रेमी और प्रेयसी के भाव को ही वज्रयानी सिद्धों ने विकसित और पल्लिवत किया हालाँकि इसका स्वरूप उनके साहित्य में काल, परिस्थिति और साधना के स्वरूप को विशिष्टता के कारण कुछ परिवर्तित हो गया । सिद्धों ने उसी भाव को अपने उद्देश्य के अनुसार अपने उद्गारों में एक नए रूप में ढाला है । फिर भी प्रेमी-प्रेयसी तथा प्रेम का भाव (जो मूल है ) बना रहा । सिद्धों ने प्रेमी और प्रेयसी के जिस प्रेम सम्बन्ध को सहज साधना तथा प्रज्ञा और उपाय के प्रणय सम्बन्ध के रूप में अपनाया उसे हो कबीर आदि संतों ने माधुर्यभाव की भक्ति के रूप में स्वीकार किया । रामसिंह ने देह और आत्मा के बीच प्रेमी और प्रेयसी का सम्बन्ध देखा और कबीर ने आत्मा-परमात्मा के सम्बन्ध को पति-पत्नी तथा प्रेमी-प्रेयसी के बीच प्रणय सम्बन्ध के रूप में प्रकट किया है । प्रेमी और प्रेयसो जब मिलते हैं तो सुख में विभोर हो जाते हैं और जब विछड़ते हैं तो विकल होकर पुकार उठते हैं । यही हाल कबीर का है । श्रात्मा जव परमात्मा के साथ मिलकर एक हो जाती है तव कबीर अपनी सखियों को मंगल गीत गाने को कहते हैं क्योंकि उनके घर 'राजाराम भरतार' श्राए हैं । ३ वे खुलकर कहते हैं कि हरि मेरा पिया है और मैं उसकी बहुरिया हूँ । प्रेयसी प्रेमी को पुकारती है - हे बालम ! मेरे घर आओ। तुम्हारे बिना मेरी देह दुःखी है । सब कोई मुझे तुम्हारी नारी (पत्नी) कहते हैं पर मुझे संदेह है क्योंकि जब तक एक सेज पर पति-पत्नी सोयें नहीं तब तक दोनों में स्नेह कैसा ? ४ किन्तु यह किसी साधारण स्त्री-पुरुष का प्रेम नहीं है । कवीर उस अभिनाशी दुलहा को खोजते हैं जो भक्तों का रखवाला है । उसी परमात्मा से यह जीव उत्पन्न हुआ और उसी के लिए वह प्यासा रट लगा रहा है । " कबीर उस १. एक्कु ण किज्जइ मन्त ण तन्त । णिअ घरिणि लइ केलि करन्त ॥ अ घरे घरिणि जाव ण मज्जइ । ताव कि पंचवण विहरिज्जइ ॥ - दोहा कोश - सं० - डॉ० बागची - २८ - पृ० -- २७ २. दोहा ० सं ० - डॉ० बागची - ८५ - पृ० – २० ३. कबीरवचनावली - ६८ - पृ० - २१० ४. वही - १०० - पृ० – २१० ५. Jain Education International Safari geet na मिलि हौं, भक्तन के रछपाल । जल उपजी जल ही सों नेहा, रटत पियास पियास ॥ - वही— १०७ - १० -२१२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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