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________________ 134 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 सजनी 'हुलास' से भर उठती है। उसे 'पाँच भीट के पोखरा' को पार करना है जिसमें दस द्वार हैं। मुसीबत तो यह है कि 'पाँच सखी' बैरिन हो गई हैं। अब वह पार उतरे तो कैसे ?' कबीर यह अच्छी तरह जानते हैं कि एक दिन राजा-रानी, योगी आदि सबको इस दुनिया से कूच करना है। उस परलोक में पाप-पुण्य की हाट लगी है। उस हाट को देखने के लिए पाँचों सखियाँ पाई हैं जो एक से एक सयानी हैं।२। सिद्धों ने अपनी साधना के प्रसंग में हठयोग का सहारा लिया है। यही कारण है कि वे इड़ा-पिंगला और सुषुम्ना की चर्चा यत्र-तत्र करते हैं। हठयोग के इन प्रमुख तीन अंगों को चंद्र; वाम-दाहिन; रवि-शशि आदि नामों से भी संबोधित किया गया है। शांतिपाद 'वाम-दाहिण' को छोड़कर चलना चाहते हैं३ । अर्थात् वे इड़ा और पिंगला को वजित कर सुषुम्नारूपी वास्तविक मार्ग का अनुसरण कर सहस्रार तक पहुँचना चाहते हैं। सरहपा भी अपनी साधना के प्रसंग में 'वाम-दाहिण' को नहीं भूलते हैं।४ सरह कहते हैं कि जो साधक चंद्र-सूर्य को घोल देता है वह अनुत्तर में प्रविष्ट होता है। यही सकल निगूढ़ ज्ञान है। इस सहज स्वभाव को मूढ़ नहीं जानते। भला जिसने चन्द्र-सूर्य को एक कर दिया उसे काल क्या कर सकता है ? ६ काह्नपा कहते हैं कि जिस साधक ने पवन-गमन के मार्ग अर्थात् सुषुम्ना में ताला लगा दिया उसने अंधकार में दीपक प्रकाश भर दिया। ध्यानपूर्वक विचार करने पर ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र में भी जैनाचार्य मार्गदर्शन का काम कर रहे हैं। रामसिंह ने भी हठयोग के इन अंगों का उल्लेख अपने उद्गारों में किया है । ये कहते हैं कि बायीं ओर ग्राम बसाया और दाहिनी ओर भी किन्तु मध्य को तू ने सूना रखा। हे योगी, वहाँ एक ओर ग्राम बसा। कबीर आदि संतों ने भी हठयोग की इस प्रक्रिया को अपनाया है। यत्रतत्र अपने उद्गारों में ये इड़ा-पिंगला; सुषुम्ना; सहस्रार; अष्टकमल आदि का उल्लेख करते हैं । सहस्रार में पहुँचने पर जब वे कहते हैं कि आसमान गरज रहा १. वही-१७५, पृ० २३४. २. वही-२११, पृ० २४७. ३. चर्यागीतिकोष-१५, पृ० ५१. ४. वाम दाहिण जो खाल विखला । सरह भणइ वापा उजुबाट भइला ॥--चर्या गीतिकोष-३२, पृ० १०५. ५. दोहाकोश ... सं०-राहुल सांकृत्यायन-३५, पृ० १. ६. दोहाकोश- सं०-डॉ० बागची-संकीर्ण दोहा संग्रह-१, पृ० ३२. ७. वही-२२-पृ० २६. ८. वामिय किय अरू दाहिणीय मज्झइं वहइ णिराम । तहिं गामडा जु जो गवइ अवर वसावइ गाम ॥ -पाहुड़ दोहा--१८१, पृ० ५४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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