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________________ 132 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 रूपी हरे-भरे वृक्ष की प्रोर मुख मोड़े ।' सिद्धों के सिरमौर सरहपा ने भी मन को हाथी का रूपक देते हुए उसकी मुक्ति की कामना की है । वे कहते हैं कि हाथी को बंधन में बाँध देने पर वह दसों दिशाओं में दौड़ता है, अर्थात् बंधन मुक्त होने का प्रयास करता है । किन्तु यदि उसे बंधन से मुक्त कर स्वच्छन्द छोड़ दिया जाय तो वह स्थिर हो जाता है, अर्थात् निर्द्वन्द्व होकर विचरता है । 3 सरहपा सहज जीवन-यापन के हामी थे, वे सहजयान के महान् प्रवर्तक थे । अतः उन्हें किसी प्रकार का संयम और बंधन प्रिय नहीं था । वे तो “खाग्रन्ते, पोअन्ते, सूरअ रमन्ते । अलि-उल बहल हो चक्क फरन्ते" ( दोहाकोश - ४८, पृ० १२ ) के हामी थे । उनके अनुसार इसीविधि से साधक भूलोक के सिर पर पैर देकर परलोक जा सकता है । इसलिए मुनि रामसिंह और देवसेन के विचारों से सरह के विचार निश्चय ही भिन्न हैं क्योंकि उद्देश्य एक होते हुए भी पथ भिन्न है । फिर भी तीनों ने मनको हाथी का रूपक दिया है । सहज जीवन के महत्त्व को बतलाते हुए सरह ने कहा है कि जड़ मनुष्य सहज जीवन को अपना कर बंधन में बँध जाता है पर पंडित (ज्ञानी) को चित्तवृत्तियों का उससे निरोध हो जाता है और इस प्रकार वह मुक्त हो जाता है । बँधा हुआ हाथी दसो दिशाओं में दौड़ता है और बंधन मुक्त होने पर निश्चल हो जाता है । हाथी को देवसेन और रामसिंह ने जहाँ संयम और सदाचार का पाठ पढ़ाया वहाँ सरह ने उसे सहज उन्मुक्त भाव से विचरने को छोड़ दिया । इनकी परम्परा का पालन करते हुए कबीर ने भी मनरूपी करभ (हाथी) को वश में करने का संकल्प किया है। मनरूपी सिद्धों ने अपने उद्गारों में बार-बार पंचेन्द्रियों की चर्चा कर उन्हें वश में करने का परामर्श दिया है । तिल्लोपाद ने अपने प्रथम पद में ही स्कंध, भूत, आयतन और इन्द्रियों की चर्चा की है। विषयों में लिप्त पंचेन्द्रियाँ उनकी पैनी दृष्टि से छिपी नहीं है ।" सरहपा कहते हैं कि जहाँ इन्द्रियाँ विलीन हो जाती हैं तथा आत्म-स्वभाव नष्ट हो जाता है वही सहजानन्द की अवस्था है । आर्य देवपाद चाहते हैं कि मन में इन्द्रिय पवन नष्ट हो जाय । भूसुकपाद हेरी वनकर 'पंचजणा' १. सावयधम्म दोहा- १३० पृ० ४०. २. बद्धो धावे दस दिसहि, मुक्को णिच्च द्वाअ । एमइ कहा पेक्खसहि, विवरिअ महु पडिहाअ || - दोहाकोश - सं० राहुल सांकृत्यायन - २६ – पृ० ६. ३. दोहा कोश - सं० - राहुल सांकृत्यायन -- ९२-९३ - पृ० २२. डा० बागची - १ - पृ० १. दोदा कोश - सं० ४. ५. वही – ५ – पृ० १. ६. दोहाकोश - सं० - राहुल सांकृत्यायन - २९ - पृ० ८. चर्यागीतिकोष - ३१ - पृ० १०२. ७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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