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________________ 130 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 को और भी स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि जिस प्रकार पुष्प में सुगंध होती है उसी प्रकार साधक के शरीर में ही उसका साईं बसता है। लेकिन अज्ञान में पड़ा वह साधक परमात्मा को बाहर इधर-उधर उसी प्रकार ढूंढ़ता फिरता है जैसे मृग अपनी नाभि में कस्तूरी को रखते हुए भी उसे घास में खोजता फिरता है।' बहुधा लोग मंत्र-तंत्र तथा श्वास पर संयम को ही महत्त्वपूर्ण मान बैठते हैं और इनके ताने-बाने में पड़कर अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाते हैं । किन्तु मुनि रामसिंह का स्पष्ट विचार है कि जव साधक मंत्र, तंत्र, ध्येय, धारण तथा उच्छ्वासों से ऊपर उठ जाता है तब वह परमसुख से सोता है। पर यह गड़बड़ किसी को नहीं रुचती अर्थात् लोग इस परमसख को पसंद नहीं करते और व्यर्थ के मंत्र-तंत्रादिक विधि-विधानों में पड़े रहते हैं। सरह का भी विचार है कि मंत्र, तंत्र, ध्यान, धारण आदि बिलकुल बेकार हैं। ये सव विभ्रम के कारण हैं। पवित्र चित्त को गंदा नहीं करना चाहिए। सुख रहते हुए अपने आपसे झगड़ने से क्या लाभ ?3 इसी भाव को आगे चलकर मध्ययुग के संत कवि कबीर ने ग्रहण किया। उनका भी यही विचार है कि साधक स्वयं को पहचाने । व्यर्थ के क्रिया कलाप से कोई लाभ नहीं होगा । सहज सहज में समाकर रहता है और कहीं आता-जाता नहीं। उस दशा में न तो ध्यान रहता है, न जपतप और न राम-रहीम का भेद भाव ही। तीर्थ-व्रत को भी साधक छोड़ देता है और शून्य की डोर में वह बंधता भी नहीं। संसार के इस धोखे को जब वह समझ लेता है तब और किसी को पूजा करने को नहीं रह जाता। एक आम धारणा है कि दो नावों पर पाँव नहीं रखना चाहिए। इसी परंपरागत भाव के आधार पर साधकों और विचारकों ने भिन्न युगों में अपने विचार व्यक्त किए हैं। रामसिंह कहते हैं कि दो रास्तों से जाया नहीं जा सकता, दो मुख की सूई से कथरी नहीं सीई जा सकती। हे अजान ! दोनों बातें नहीं हो सकती, इन्द्रियसुख भी और मोक्ष भी।" इसी भाव को अपनाते हुए मध्ययुग के संत कवि कवीर ने कहा कि यदि कोई ईश्वर प्रेम का रस पीना १. वही-१८-,-९५. २. मंत ण तंतु ण धेउ ण धारणु । ण वि उच्छासहु किज्जइ कारणु ॥ एमइ परमसुक्खु मुणि सुब्वइ । एही गलगल कासु ण रुच्चइ ॥ -~~-पाहुड़ दोहा-२०६-१० ६२. ३. मन्त ण तन्त ण धेअ ण धारण । सत्रवि रे बढ़ विभण-कारण । असमत चिअ म झाणे सरडह । सुह अच्छन्ते म अप्पण भगडह ।। दोहाकोश-सं०-राहुल सांकृत्यायन--४३--पृ० १०. तथा वही-१४५-पृ० ३० ४. कबीर-वचनावली-१८-पृ० ९५. ५. पाहुड़ दोहा-२१३-पृ० ६४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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