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जैन दर्शन का उद्भव एवं विकास : एक ऐतिहासिक मूल्यांकन
डा० भागचन्द्र जैन भास्कर भारतीय दर्शनों की शृङ्खला में जैन दर्शन एक अन्यतम प्रशस्त कड़ी है। विचार और चिन्तन के क्षेत्र में उसका योगदान अविस्मरणीय है। जैन दर्शन के उद्भव और विकास की सीमाओं को देखने से स्पष्ट है कि उसने जैनेत्तर दर्शनों के समक्ष अनेक नये तथ्य प्रस्तुत किये हैं। यह विषय वस्तुतः एक प्रबन्ध का विषय है अतः समग्न रूप से उसे इस लघुकाय निबन्ध में निबद्ध करना सम्भव नहीं। इसलिए संक्षिप्त रूप में हम उसे देख सकेंगे।
__ जैन दर्शन के विकास को हम साधारणतः चार कालों में विभाजित कर सकते हैं :
१. आगम काल (भ० पार्श्वनाथ से लेकर छठी शताब्दी ई० तक) २. अनेकान्त काल (तृतीय शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक) ३. प्रमाण काल (आठवीं शताब्दी से १७ वीं शताब्दी तक) ४. नव्य न्याय काल (१८ वीं शताब्दी से)
इन चारों कालों में जैनधर्म और दर्शन का पूरा क्षेत्र समहित हो सकता है परन्तु हम यहाँ मात्र विचार को अपना अभिधेय बनावेंगे। विचार क्षेत्र में सप्ततत्त्व, अनेकान्त, द्रव्य, ज्ञान और प्रमाण पर हम विचार करेंगे। सप्त तत्त्व :
जैन दर्शन में जीव, अजीव (कर्म), आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व माने जाते हैं। पुण्य और पाप को मिलाकर इन्हीं को नव पदार्थ कहा जाता है। त्रिपिटक में बुद्ध शाक्य महानाम से निगण्ठ नातपुत्त के सिद्धान्त का उल्लेख करते हैं जिसमें आत्मा और कर्म का सम्बन्ध तथा उस सम्बन्ध को दूर करने का उपाय बताया गया है।' इस उद्धरण में यद्यपि सप्त तत्त्वों के नाम स्पष्ट रूप से नहीं मिलते पर उनके कार्य की रूपरेखा अवश्य मिल जाती है। इस उद्धरण को हम सप्त तत्त्वों के वीज रूप में स्वीकार कर सकते हैं। संभव है, यह सिद्धान्त पार्श्वनाथ-परम्परा से सम्बद्ध रहा हो।
दीघनिकाय और उदान में तत्कालीन प्रचलित वाद-विवाद के विषयों का उल्लेख है। उसमें उडम्नज्ञानका सजीवाद जैन तत्त्व से सम्बन्धित होना चाहिए। आचार्य बुद्धघोष भी इसका समर्थन करते हैं। पोट्टपाद के द्वारा
१. मज्झिम. १ पृ० ९, २. पृ० ३१, २१४; अंगुत्तर १. पृ० २२०. २. सुमंगलविलासिनी, पृ० ११०.
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