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________________ શાઅસમ્મત માનવધર્મ ઔર મૂર્તિપૂજા. २११ હેવાથી એટલે પોતાની દવાથી આ નીરોગ નહિ બને એમ લાગવાથી દવા કરવાની તે ના પાડે તે પણ તે “વૈદ્ય ચિકિત્સા શા ભયે નથી,”એમ તે નજ કહી શકાય. અને જેને ના પાડી તેની ઉપર તેને દ્વેષ છે, અને જેને દવા કરવાની હા પાડી તેની ઉપર રાગ છે, એમ પણ ન કહી શકાય તેવી રીતે અરિહંત પ્રભુ પણ સાધ્ય રોગી જેવા ભવ્યના કર્મ રેગને દૂર કરતા છતાં રાગવાળા નજ કહેવાય. અને અસાધ્ય રેગી જેવા અભાના કર્મ રેગને નાશ ન કરે, તે પણ શ્રેષવાળા ન કહેવાય. આ વાતને સચેટ સમજાવનાર બીજા ગ્રંથમાં ત્રીજું વૈદ્યના જેવું જ કુશલ ચિતારાનું દષ્ટાન્ત પણ આપેલું છે તે ત્યાંથી જાણી લેવું. या. शास्त्रसम्मत मानवधर्म और मूर्तिपूजा. लेखक:-पूज्य मु. श्रीप्रमोदविजयजी महाराज (पन्नालालजी) (५. २ 43 3 ५०४ ७८ थी अनुसंधान.) . भारतीय इतिहास तो मूर्ति पूजा को प्राचीनता की साक्षी देता ही है किंतु संसार का इतिहास भी ईस का निषेध कदापि नहीं कर सकता है। भारत ही मूर्तिपूजक और मूर्ति को सिर झुकाने वाला नहीं है किंतु सारा व्यापक संसार ही मूर्तिपूजक और मूर्ति को सिर झुकाने वाला है। संसार की विशद्द संस्कृति का टिकाव मूर्तिपूजा पर ही निर्धारित है। जब सारा संसार ही मूर्तिपूजक था और वर्तमान में भी है तो जैन धर्म यदि मूर्तिपूजा का विधायक हो उसके शास्त्रो में मूर्ति पूजा विषयक उल्लेख मिलता हो तो आश्चर्य हों क्या है? जैन धर्म के मौलिक शास्त्रों में स्थानक पर शाश्वत एवं अशाश्वत जिनेश्वर देव की प्रतिमा पूजा का स्पष्टोल्लेख मिलता ही है यह बात शास्त्रीय रहस्यान्वेषकों से प्रच्छन्न नहीं है। जब भारत पर यवनों का आक्रमण हुआ था और वे लोग प्रत्येक धर्म मंदिरों को तहस, नहस, सण्ड मुंड एवं खण्डित कर मस्जिद या दरगा का रूप देने के प्रयत्न में संलग्न थे उस समय गौरव रक्षा, धर्माभिमान, और आत्मबल का अद्भुत पाठ किसने पढ़ाया ? क्या उस समय अपनी संस्कृति के निभाव के लिये, मंदिरों की रक्षा के निमित्त, तथा धर्म प्रेम के वशी भूत होकर अनेक वीर पुरुषों ने आत्म बलिदान नहीं कर दिया ? भारतीय इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण प्राप्त होंगे जिन्होंने मंदिरों, मूर्तियों और धर्म के लिये जीवन सर्वस्व अर्पण कर दिया था। धर्म गौरव का इस प्रकार से स्फारित पाठ पढ़कर दृढ संस्कारों का जमाना सबने मूर्ति से ही सीखा है। मौर्य साम्राज्य काल में सम्राट चंद्रगुप्त के समय मूर्ति पूजा का कितना महात्म्य था इसकी साक्षी स्वयं भारतीय प्राचीन इतिहास ही दे रहा
SR No.522519
Book TitleJain Dharm Vikas Book 02 Ank 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1942
Total Pages52
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size10 MB
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