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જૈન સાહિત્ય મેં વાલિયર
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भय प्रतिमा बिराजमान की और आमराजा नागावलोकने सूरिजी के ऊपदेशसे शत्रुजय की यात्राका संघ निकाला जिसमें श्वेताम्बर, दिगम्बर संप्रदायानुयायी सम्मिलित थे। बप्पभटिसूरि की और आमराजा का इतना धनिष्ठ सम्बन्ध था मानो चाणक्य चंद्रगुप्त की आवृत्ति ही हो । बप्पटिसूरिका जन्म विक्रम स. ८०७ में हुआ था और ८८५ में स्वर्गगति को प्राप्त हुए । आमराजा का स्वर्गवास ८८० में हो चुकाथा । यह आमराजा वही है जिनको भारतीय इतिहास में नागावालोक से पहिचानते हैं । ग्वालियर की प्रशस्ति परसे फलित होता है कि उसने अनेक देशों पर अपना प्रभुत्व जमाया था । आमराजा का पौत्र राजाभोजदेवभी जैन धर्मानुयायी था। बप्पभट्टिसूरिके गुरुबन्धु श्रीनभसरि के उपदेशसे श्रावकोचित व्रत अंगीकार किये और मथुरा, शत्रुजय, प्रभृति तीर्थो का संघ निकाला था । विविध तीर्थकला सेवता चलता है । मथुरामें विक्रम सं. ८२६ में बप्पभट्टि सूरिने प्रतिष्ठा करवाई। बप्पभटिसूरिजी तत्कालीन विद्वानों में प्रथम श्रेणिके माने जाते है। प्रभावक चरित्र में पूर प्रबन्ध निर्माण करने का उल्लेख दृष्टिगोचर होता है । वर्तमान में सरस्वती स्तोत्र और चतुर्विशति जिनस्तवन दोकृति ही उपलब्ध होती हैं । उपरोक्त सूरिजीने अपना बहुत प्रभाव राजाओं के साथ ही बिताया गया था। जिससे जैन साहित्यमें राजपूजित उपनामसे मशहूर हैं। वाकपतिने भी गऊडपेहा नामक काव्य में सूरि और नरेश को अमर कर दिये हैं।
___ आमराजाने वणिक कन्या के साथ पाणिग्रहण किया था। उनकी जो संतति उत्पन्न हुई वह राजकोठारी नाम से कहलाई और ओसवाल वंशमें समलित हो गई। सं. १५८७ बैसाख वदी ६ के दिन कर्माशाहने शत्रुञ्जय का उद्धार करा कर प्रतिष्ठा करवाई जिससे जाना जाता है कि १६ वों शताब्दी तक आमराजा का वंश इतिहास प्रसिद्ध मेवाड़ की राजधानी चित्तोड में मौजूद था।
(६) पर्ण वर्ण सुवर्णाष्टादश भार प्रमाणम् । श्रीमतो वर्धमानस्य प्रभोरप्रतिमानम् ॥१३७॥ निरमाणत संप्राध्यागण्य पुण्यमरर्जनौः। धार्मिकाणा संचरन्ती प्रतिमाप्रतिमानसम् युग्यम ॥१३८॥ श्री बप्पभट्टिरेत्यानिर्ममेनिमेश्वरः। प्रतिष्ठां स प्रतिष्ठासुः परमपदमात्मनः ॥१३९॥ तयागोपगिरौ लेप्यमयबिम्बयुतं नृपः। श्रीवीरमन्दिरं तत्र त्रयोविंशतिहस्तकम् ॥१४०॥
(प्रभावक चरित्र निर्माणकाल १३३४ प्र. ८५ सिधीसिहोन) (८) सित्तुंजेरिसह, गिरिनोरनेमिं, अच्छे गुणिसव्यं, मोढेर पवीरमहुरायेसु पास पासे घडि आदुगन्भतरे नमित्ता सोरठे ढुंढण विहरित्ता गोवालगिरिमि जो मुंजेहतेण अमरायसे अकमलेण सिरिवहदिसूरिणा अट्ठसयछवीसे (८२६) विक्कमसंवच्छरे सिरी वीरबिंब महुराए ठाविरं।
(विविध तीर्थकला निर्माणकाल सं. १३८९ पृष्ठ १९),