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________________ જૈનધર્મ વિકાસ, महाजनो येन गतः स पन्थाः जड़ चेतन जे वस्तु ये, तिनकर धर्म अधार । जो हठ राख धर्मको, ते हि राखै करतार ॥ धर्म प्राण जे नर बनें, ते नर इश्वर पूत । अधम कुचाली पातकी, ते जीतेही भूत ॥ प्रिय पाठक वगौं ! इस मोहमय संसार में प्राणिमात्र सुख चाहते हैं। कोई भी प्राणी दुःख सहन करना नहीं चाहता है। सबको ईच्छा रहती है कि हम सुखी रहें। स्व. तन्त्र बनें । इच्छा ही नहीं वरन् उसकी प्राप्ति के लिए अहर्निश अनेक यत्न भी करते हैं। फीर भी अनेकों यत्न करने के बाद भी दुःख ही सामने खडा है, वात क्या है? इन विषयों पर अनेकां महर्षियां ने पूरे पूरे विचार किये हैं, अन्तमे उनलोगों ने यही निश्चत किया है किः ऊर्ध्व वहति धर्मस्य, स्रोतोऽधर्मस्य चाप्यधः । जैसे अग्नि के प्रकाश की गति ऊपर की जाती है वैसे ही धर्म का स्रात ऊर्ध्व गामी है। जिसप्रकार मिट्टी के ढेले का गमन निरन्तर नीचे में ही होता है उसी तरह अधर्म का स्रोत नीचे को ही जाता है । तात्पर्य यह है कि धर्म सुख की जड़ है और अधर्म दुःख की जड़ है । वीज दोनो ही सामने तैयार हैं जैसे फलकी आप को आवश्यकता हो उसके अनुसार वीज बोये सुख की ईच्छा हो तो धर्म और हुःख की इच्छा हो तो अधर्म करें। एक वो दिन आजाते हैं कि हमारे उपार्जन किए हुए समस्त रुपये पैसे घरमें ही रहजाते हैं । हमारे उत्तम उत्तम मोटरे, हाथि, घोडे इत्यादि नाना प्रकारके वाहन अपने अपने स्थानपर ही रह जाते हैं। हमारी स्त्री भी दरवाजे पर रोती खडी रहजाती है । इष्टमित्र भी स्मशान तक जाते हैं । और कीतो वात ही क्या है, जिस शरीर की इतनी सेवा की वह भी चिता पर भस्म हो जाता है यानी जीव के साथ कोई भी नहीं जाता है। उस समय जीव दुःख सागर में डूबता हुआ हाहाकार मचाने लगता है । तव धर्म आकर कहता है किः मा तात सहसा कार्षी धर्मोऽहं त्व मुपागतः । प्यारे जीप ! घबराहट में जल्दी न कर तेरा सहायक मैं तेरे साथ हूं। मित्रों ! जब ऐसे विकट समय मे धर्म के अतिरिक दूसरा सहायक नहीं है तो उसे भूलजाना क्या उचित है ?
SR No.522516
Book TitleJain Dharm Vikas Book 02 Ank 04 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1942
Total Pages104
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size14 MB
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