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જૈન ધર્મ વિકાસ
धर्मरूप मार्गव्यय की आवश्यकता है । अरे! संसारमें तो अनेक ऐसे अनुग्रह दृष्टिवाले श्रीमंत सज्जनगण विद्यमान हैं जिनसे याचना करने पर अपनी स्वार्थ पूर्ति हो सकती है किंतु परलोकमें तो इस प्रकार अनुकम्पा करनेवाला कोइ नहीं मिलेगा। संसार में तो दूर २ का परिचय, संबंध और नाता निकालकर उदरभरण कर भी सकते है किंतु परभवमें ऐसा कोइ परिचित ज्ञातिजन न मिलेगा जिसकी तुम्हारे पर अनुग्रहदृष्टि हो जाय। यहां तो अपनी जेब खर्ची से ही काम चलेगा। यदि जेब खर्ची पूर्ण नहीं है तो मार्ग के बीचमें ही उतरना पडेगा और विविध यातनाएं सहनी पड़ेगी कहा भी है कि:
अद्धाणं जो महंतं तु, अपाहेओ पवज्जइ। गछंते से दुही हुई, छुहातण्हाहिं पीड़िए । एवं धम्म अकाऊणं, जो गच्छइ परं भवं।
गच्छंते से दुही हीई, वाहीरोगेहिं पीडीए॥ यह तो अपाथेय ( शम्बल, मार्गखर्च रहित ) मुसाफिरी की उपमा देकर अधर्म के परिणाम का प्रतिपादन किया साथ ही धर्मरूपी पाथेय ले कर मुसाफिरी करने वाले को कितनी सुविधा, कितना आनन्द और कितना हर्ष होता है सो भी बताते हुए कहते है किः
अद्धाणं जो महंतं तु, सपाहेओ पवाइ। गच्छंते से सुही होई, छुहातहाविवजिओ॥ एवं धम्म पि काउणं जो गच्छइ परं भवं ।
गच्छंते से सुही होई, अप्पकम्मे अवेयणे पर भव में कोई चाची, नानी और मामी का घर नहीं जो कि जीव का आतिथ्य सत्कार करे। यदि मान पूजा और प्रतिष्ठा को कामना है तो धर्मरूपी जेब खर्ची साथ में ले जाओ इससे किसी की भी तुम्हारे पर प्रहार करने की हिम्मत नहीं होगी। जिसने इस तत्व रत्न को पहिचान लिया उसने सब को जान लिया है “जे पगं जाणइ से सव्वं जाणइ" का सारांश भी यही है कि जिसने आत्मतत्व का यथार्थरूप में अवलोकन कर लिया उसने सकल तत्वोंका अध्ययन कर लिया है। धर्मतत्व आत्मतत्व से भिन्न नहीं है वह तद्रप ही है।
* लिंगभेद उसकी बाह्य वृत्ति का ही सूचक है । लिंग कोइ आत्मकल्याण का साधकतम (उपादान) कारण नहीं है। लोकप्रतीति के निमित्त ही लिंग की आवश्यकता बतलाइ हैं वास्तव में आत्मकल्याण तो ज्ञान दर्शन और चारित्र से ही संबंध रखता है । शान दर्शन और चारित्र धर्मका विकास भी आभ्यंतर सप्रवृत्ति से ही हो सकता है। वेदोपनिषद् में भी कहा है कि:
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