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________________ २६४. જનધર્મ વિકાસ जहा सुणी पूइकण्णी निक्कसिज्जइ सव्यसो । एवं दुस्सीलपडिजीए मुहरी निक्कसिज्जइ ।। कण कुंडगं चइचाणं, विटं झुंजइ सूयरो। एवं सीलं चइत्ताणं, दुस्सीले रमइ मिए ।। जैसे ग्राम शूकर का जन्मसिद्ध संस्कार विष्ठा (प्दी) खाने का ही रहता है उसके सामने एक ओर विविध प्रकार के धान्य तंडुल आदि रखदें और दूसरी ओर विष्ठा का पात्र रख दें तो वह सब को छोड़ कर विष्ठा पात्र में ही मुंह डालेगा उसी प्रकार अज्ञानी जन उत्तम धर्म पात्रको छोड़ कर विष्ठा रूप अधर्म पात्रकी ओर ही बकते हैं जिसका परिणाम इतना कटु होता है कि उनको इत उत सर्वत्र द्वार २ का भिखारी होना पड़ता है। जैसे अज्ञानी मृग गोतरागान्ध बनकर व्याध (शिकारी) की ओर भी नहीं देखता है और अपने जीवन को पराधीन बनाकर दुःखीकर डालता है उसी प्रकार विषयों के लोलुपी बन कर जीव भी धर्म को भूल जाते हैं और मरण प्राप्त कर नरकादि नीच योनियों में विविध यातनाएं सहन करते हैं यह सब धर्म की उपेक्षा का ही परिणाम है। धर्मचक्षु दृश्मान पदार्थ नहीं है वह तो आत्मशक्ति विकास द्वारा ही अनुभवगोचर होता है। भपूर्ण. પુવીચંદ્ર અને ગુણસાગર એક્ટીસ ભવને સ્નેહસંબધ [भूक्षता : ३५विय श]ि याने અનેક અન્તર્ગત કથાઓથી ભરપૂર, વૈરાગ્યમય છતાં વાંચવામાં રસ ઉત્પન્ન કરે તેવો આ ગ્રંથ હરેક જૈન-જૈનેતરે અવશ્ય વાંચવા તેમજ મનન કરવા યોગ્ય છે. કાઉન સોલ પેજી સાઈઝમાં, હેલેન્ડના ઢેજ કાગળ ઉપર સુંદર છપાઈ તથા આકર્ષક બાઈન્ડીંગ ફરમાં લગભગ ૪૦ છતાં કીંમત માત્ર રૂપિયા ત્રણ. -भगवान स्थ१. भाडेता नारास प्रा | | ૩ મેઘરાજ જૈન પુસ્તક ભંડાર દોશીવાડાની પોળ, पायधुनी-भुम. અમદાવાદ. ૪ જેનધર્મપ્રસારક સભા ભાવનગર. ૨ સંઘવી મુલજીભાઈ ઝવેરચંદ ૫ મોહનલાલ રૂઘનાથ પાલીતાણ. પાલીતાણા, -
SR No.522509
Book TitleJain Dharm Vikas Book 01 Ank 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1941
Total Pages36
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size8 MB
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