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જેને ધર્મ વિકાસ,
जैनसमाजने तिथ्यांदोलन
__ लेखक-भिक्षु भद्रानंदविजयजी-शीवगंज लिखता हूं तो कलम ध्रुखती है। विचारता हूं कि लिखू या न लिखू ? निदान अनेक संकल्पविकल्पानंतर यही निर्णयात्मक विमर्श हुआ कि कुछ लिखना आवश्यक है। कारण अन्यायका तक्षणं एवं न्यायका रक्षण करना मनुष्यमात्रका कर्तव्य है। वर्तमानमें समाजकी इस डावाडोल. असंतोषजनक परिस्थिति को देखकर मेरा हृदय कंपित हो रहा है। वास्तवमें ऐसा होना नैसर्गिक है; क्योंकि जिससमाजमें हमने जन्म लिया, जिसके रजकण एवं वातावरणसे अपने शरीरको पुष्ट किया उस समाजकी ऐसी सोचनीयदशा प्रत्येक सहृदय व्यक्तिके लिये हृदयद्रावक ही है। जैनआत्मबंधुओ व शासननाथकोंका ध्यान आज मैं इस विषयकी ओर आकर्षित करनेके लिये साग्रह निवेदन करता हैं कि जबसे हमारी जैनसमाजमें तिथ्यांदोलन चला है तबसे साम्य वादियां एवं जैनसिद्धांतके. तत्त्ववेत्त नवयुवकोंके हृदयमें कैसी विचारधारायें प्रवाहित होती रहती है और सरलस्वभावी, शांत समताधारी जैनाचार्यादि मुनिगणोंमें कितना क्षोभ हुआ है और जैनसमाजमें कितना कलह, कंकास, वैरविरोध, द्रोहादि कुसंपका बीज रोपा गया है इसका विमर्श तो धर्मनायक एवं सुज्ञवांचकबंदही कर लेवे। ये सर्व उपद्रवोंके मुखा निमित्तभूत श्रीमद् रामसूरीजीका ही प्रताप है। उनकी बृत्तियों भोले जैनसमाज एवं कितनेक धनाढ्य श्रावकको व्याख्यानकलादिसे द्रष्टिरागी बनाकर पक्षको प्रबल किये बाद इस तिथ्यांदोलन फैलाके नवीन मतस्थापन करनेकी और झुकी है। जैसे थोडेक वर्ष पूर्व श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजीने भी तीन थुईका मत निकाल कर अपनीनाम-ख्याती कर मथे है इसी तरह नवीन तिथिस्थापकने भी पूर्वजोंकी परंपरागत तिथिकी सुपद्धतिको उत्थापकर अपनी मनमानी नवीन तिथिका स्थापन किया है और उनके इनने समुदाय व संप्रदाय के साथ संबंध रखनेवाले आचार्यादि मुनिगण व कितनेक लोगोने असमझ व समझते हुए भी इनका अनुकरणं किझा है। ठीक ही श्रीमद् न्यायविजयजी महाराजने कहा है कि
मुमुक्षवोऽवि विद्वांस; साम्प्रदायिक दुर्ग्रहात । - किष्टचेतः परीणामी-सन्तो गज्छन्तिकापथम् ॥
अर्थात मोक्षाभिलाषी विद्वानोंभी संप्रदायके दुराग्रहसें अपनी मनोवृत्तिको कषायकलुषित बनाते है ओर निदान उन्मार्ग चढ जाते है। वास्तवमे मध्यस्थवृत्तिसे मीमांसाकरनी चाहीए कि जिससे समाजमें पारस्पारिक भाइयोंमें कलह एवंरंज हो वैसा