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________________ ચારિત્રકી મહત્તા चारित्रकी महत्ता लेखकः-मुनिश्री अशोकविजयजी महाराज (मुनि संबालालजी) जम्मं दुक्खं जरादुक्खं, रोगाणि मरणाणि य । . - अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ की संति जंतवो॥ श्रमण भगवान् महावीर संसारकी असारता एवं उसके दुःखस्वरुपको बतलाते हुए उत्तराध्ययनसूत्रमें फरमाते है किः-हे भव्यजीवो ! इस असारसंसारमें जन्म लेना भी दुःखकारी है, जरा (वृद्धावस्था) दुःखदायी है, रोग, व्याधि एवं मरण भी जीवको क्लेशान्वित करनेवाले है । अरे ! कहांतक संसारके दुःखोका वर्णन किया जाय ? यह सम्पूर्ण जगतही दुःखस्वरुप और दुःखोंसे ओतप्रोत है, जिसमें जन्म एवं निधन (मरण) प्राप्तकर जीव नानाविध कष्टोपार्जन करते है। यद्यपि यह सकल चराचरसम जगत् क्लेशोंका आवास स्वरुप ही है, तथापि सुखके सबही इच्छुक है, सुख सबको प्रिय है और दुःख अप्रिय ! अर्थात् छोटे, बडे, राजा, रंक, फकीर, अमीर, पशु, पक्षी, आदि सबकी एकमात्र आंतरिकभावना सुखप्राप्ति ही बनी रहती है । तथा वे उसके लिये जीजानसे अनवरत प्रयत्न भी करते रहते है। किंतु सुखके वास्तविक कारणोंकी तथा यथार्थ सुखके रहस्यकी अनभिज्ञतासें सच्चे सुखकी भ्रांतिमें दुःखोत्पादक सुखकीही वास्तविक सुखस्वरुप कल्पना कर बैठते है । वास्तवमें उक्त कल्पना एकान्त भ्रमात्मिकही है उसमें लेशमात्रभी सुख नहीं है। शास्त्रकारोंने सुखको दो विभागोंमें विभक्त किया हैः-प्रथम पौद्गलिक सुख और द्वितीय आध्यात्मिक सुख । पौगलिकसुखका संबंध संसारसे है और उसकी पूर्ति इन्द्रियार्थोपसे बनसे होती है । संसारी जीव इसी पौद्गलिक सुखको वास्तवसुख मानते है और उसकी प्राप्ति हेतु विविध कष्टोपार्जनद्वारा अपने अमुल्य नरजीवनरत्नको कोडियौके मुल्यमें बेच देते है । किन्तु उनका यह प्रयत्न स्तुत्य एवं श्लाधनीय नहीं कहा जा शकता है क्योंकि वे अल्पस्वार्थके वशीभुत बन अत्यधिक एवं आशातीत आत्महानिहीं उठाते है। वास्तवमें यह सिद्धांत युक्तिसंमत एवं प्रमाणपुष्ट भी है, महाकवियोंके शब्दोंमें यदि एसा कहें कि-"अल्पस्य हेतोर्बहुहातुमिच्छन् विचारमूढःप्रतिभासमेत्वम्" तो कोई अत्युक्ति न होगी। अर्थात जो व्यक्ति अल्प निमित्तके लिये बहुहानिका अनुभव करता है उसे विचारसून्य ही मानना चाहिये, इसी प्रकार अल्प सुख के कारणस्वरुप
SR No.522502
Book TitleJain Dharm Vikas Book 01 Ank 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1941
Total Pages36
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size5 MB
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