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भक्तिलाभापाध्यायका समय और उनके ग्रंथ । लेखक - श्रीयुत अगरचन्दजी नाहटा
भारतीय तर्कशास्त्र में प्रत्यक्ष प्रमाणकी अनुपस्थिति में अनुमानको भी महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है, पर आखिर अनुमान - अनुमान ही ठहरा । निश्चित प्रमाणके मिलते ही उसका महत्त्व समाप्त हो जाता है । ऐतिहासिक क्षेत्रमें भा अनेक वस्तुओं, घटनाओं का समय निर्धारण करने के लिये जब कोई निश्चित प्रमाण नहीं मिलता तो इधर उधरकी अन्य प्रासंगिक बातोंको निर्भर करके काम चलाना पडता है पर निश्चित प्रमाणका
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अन्वेषण चालू रहना ही चाहिए । अनुसंधान करते रहने से इच्छित प्रमाण मिल ही जाते हैं । बहुत बार अनुमान पर आश्रित निर्णय बहुत कच्चे होते हैं और उससे भ्रमपरंपरा भी चल पड़ती है । इसलिये इतिहासज्ञको जहाँ कहीं भी ऐसी भूलें नजर आवें संशोधन करना आवश्यक हो जाता है। यहां ऐसे ही एक अनुमानित समयका वास्तविक निर्णय किया जा रहा है ।
श्रीयुत साराभाई नवाबके प्रकाशित ' सूरिमंत्रकल्प संदोह ' नामक ग्रंथ गत कार्तिक में प्राच्य - विद्यापरिषद के प्रसंगसे अहमदाबाद जाने पर अवलोकनमें आया । उसमें वर्धमान विद्याके एक चित्रपटका ब्लाक छपा जिसे श्रीसाराभाईने पंद्रहवी शताब्दीका बतलाया है । उस पट्ट पर लेख इस प्रकार है- " श्रीभक्तिला भोपाध्यायस्य सपरिवारस्य शांतिं तुष्टिं पुष्टिं कुरु कुरु स्वाहा। उ० जयसागर उ० श्री रतनचंद्र शिष्य उ० श्रीभक्तिलाभस्य सौख्यं कुरु
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इस लेखमें भक्तिलाभके प्रगुरुका नाम जयसागर और गुरुका नाम रतनचंद्र सागर होनेसे ये खरतरगच्छके ही हैं - निश्चित है । उपाध्याय जयसागर बहुत परिचित विद्वान् हैं। जिनका विशेष परिचय " विज्ञप्ति त्रिवेणी" में मुनि श्रीजिनविजयजीने दिया ही है। आपकी रचनाऐं संवत १४७८ से १५०३ तककी मिलती हैं। ये आबूके चौमुखमंदिरके निर्माता संघपति मंडली के भाई थे। उनकी स्तवन स्तोत्र आदि फुटकर रचनाएं भी बहुतसी हैं। खेद है कि उनकी हमें ४-५ हस्तलिखित प्रतियां मिली हैं वे सभी अपूर्ण व त्रुटित हैं। किसी सज्जनको उन रचनाओं की कोई संग्रह - प्रति पूर्ण प्राप्त हो तो हमें सूचित करें । उपाध्याय जयसागर के शिष्य रत्नचन्द्र भी अच्छे विद्वान थे। पर उनका कोई ग्रंथ जानने में नहीं आया । भक्तिलाभ इन्हींके शिष्य थे। इनके रचित 'जिनहंससूरिंगीत 'को हमने 'ऐतिहासिक जैन - काव्य संग्रह ' में २० वर्ष पूर्व प्रकाशित किया था, जिनहं ससूरिका समय १६ वीं शताब्दीका उतरार्ध होनेसे भक्तिलाभ उपाध्यायका समय भी वही [ देखो - अनुसंधान पृष्ठ : २३७ ]
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