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[ अनुसंधान पृष्ठ : १०८ से आगे ]
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'सुनि हाथी कर नांव, अंधन टोवा धायके । जो देखा जेहिं ठांव, मोहमद सो तैसे ही कहा ।
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विश्वका धार्मिक साहित्य इस बहुमूल्य दृष्टान्तके लिये अपने मूलरूपमें बौद्धसाहित्यका ही ऋणी है इसमें बिल्कुल भी संदेह नहीं ।
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ऐसे अनेक दृष्टान्त लोकसाहित्यकी मूल सम्पत्ति हैं। जिन्हें सभी धर्मवालोंने माताके दूधकी भाँति समानरूपसे उपयोगी समझते हुए अपनाया है । अमृतबिन्दुवाला दृष्टान्त महाभारतमें भी आया है और जैन ग्रंथोंमें भी । ऐसे दृष्टान्तोंके संग्रहके द्वारा हम विश्वमैत्री, सर्वधर्म समभाव, सर्वजन प्रेमके महान उदेश्यों तक सहजमें ही पहुंच सकते हैं । अतः हमें इनके संग्रह, तुलनात्मक अध्ययन, और गुणग्रहणकी दृष्टिसे सत्यके विविध लिखे हुए रूपों को अपनानेमें सर्वाधिक कटिबद्ध और प्रयत्नशील रहना चाहिये ।
[ अनुसंधान पृष्ठः ११२ से आगे ]
तपागच्छके आचार्य श्रीविजयदानसूरिके शिष्य पंडित श्रीपति, ऋषि चांपा, ऋषि कुलधर, ऋषि तेजविमल, ऋषि सिवा और ऋषि रंगा सहित ६ ठाणोंसे यात्रा करके आये, उनका जो गुणवर्णन करता है, वाणी सुनता है सो धन्य है ।
जेसलमेर के पार्श्वनाथ, संभवनाथ, शांतिनाथ, अष्टापद, कुंथुनाथ, चन्द्रप्रभ (तीन चौमुख), आदीश्वर और वर्द्धमान स्वामीके २-२ चैत्य और चोवीस तीर्थंकरोंको नमस्कार कर संघके सानिध्य से और पार्श्वनाथ प्रभुके प्रसादसे "भयख "ने करबद्ध होकर यह चैत्यप्रवाड़ी रची।
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चार्य भी
(
N. ३८२००९
नावीर जैन
નવી મદદ
૨૦) પૂ. આ. શ્રી વિજયજીવનતિલકસૂરીશ્વરજી મ. ના ઉપદેશથી શેડ વĆમાન કલ્યાણુજીની पेढी, लद्रेश्वर तीर्थ (कुछ)