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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०८] શ્રી. જેન સત્ય પ્રકાશ [१:१८ साहित्यका समभावसे तुलनात्मक अध्ययन करने पर बहुत सी ज्ञातव्य बातें प्रकाशमें आ सकती हैं। पर हम दोनों धर्मों के अनुयायियोंमें वह विशाल उदार बुद्धि बहुत कम व्यक्तियोंमें आ पाई है । सम्प्रदायिक आग्रह छोड़ना बड़ा कठिन होता है। पर उसके छोड़े बिना भी चारा नहीं । सांप्रदायिक आग्रह रखते हुए विशुद्ध तथ्यको प्राप्त करना असंभव नहीं तो अत्यन्त कठिन है। श्रीभरतसिंह उपाध्यायके पाली साहित्यके इतिहासके अध्ययनसे मुझे बहुतसे नवीन तथ्योंका पता चला । मेरा प्राकृत एवं पाली भाषाका उतना अभ्यास नहीं, फिर भी मुझे हिंदी अनुवाद सहित इन ग्रंथोंको पढनेमें बड़ा रस आता है । मैं दोनों धौके विद्वानोंसे तुलनात्मक अध्ययन द्वारा ज्ञातव्य तथ्योंको प्रकाशमें लानेका आह्वान करता हूं। जहां तक हाथीवाले दृष्टान्तका प्रश्न है, मुझे लगता है कि यह किसी सम्प्रदाय विशेषकी चीज नहीं । तत्कालीन लोकसमाजमें प्रचलित यह दृष्टान्त सभीके लिये ग्राह्य वा उपादेय था । इसे किसीने पहले लिपिबद्ध कर लिया, किसीने पीछे । बस इतनासा प्रश्न है । पर इतिहासके विद्यार्थीके लिये यह अन्वेषणीय तथ्य अवश्य है। इसीलिये इस लेख द्वारा अन्वेषणकी प्रेरणा देनेके लिये इसे उपस्थित किया जा रहा है । पाली साहित्यके इतिहासके पृ० २३०में वर्णित वक्तव्य नीचे दे रहा हूं। 'उदान 'के छठे वर्ग ‘जात्यन्ध वर्गमें ' जात्यंध पुरुषोंको हाथी दिखाये जानेकी कथा है । इस कथाका प्रवचन भगवान्ने श्रावस्तीके जेतवन आराममें दिया । अनेक अंधे हाथीको देखते हैं, किन्तु उसके पूरे स्वरूपको कोई देख नहीं पाता। जो जिस अंगको देखता है वह उसका वैसा ही रूप बतलाता है। भिक्षुओ! जिन जात्यंधोंने हाथीके सिरको पकड़ा था, उन्होंने कहा हाथी ऐसा है जैसा कोई बड़ा घड़ा। जिन्होंने उसके दांतको पकड़ा था उन्होंने कहा हाथी ऐसा है जैसा कोई खूटा । जिन्होंने उसके शरीरको पकड़ा था उन्होंने कहा हाथी ऐसा है जैसा कोई कोठी आदि । इस प्रकार अंधे आपसमें लड़ने लगे और कहने लगे हाथी ऐसा है वैसा नहीं, वैसा है-ऐसा नहीं । यही हालत मिथ्यावत् वादोंमें फंसे हुए लोगोंकी है। कोई कहते हैं लोक शाश्वत है। यही सत्य है-दूसरा बिल्कुल झूठ आदि । कितने श्रमण और ब्राह्मण इसीमें झूझे रहते हैं 'धर्मके केवल' एक अंगको देखकर वे आपसमें विवाद करते हैं । उपर्युक्त दृष्टान्त बौद्ध-साहित्यमें बहुत प्रसिद्ध है । संस्कृतमें भी अंध-गज न्याय प्रसिद्ध है । जैन साहित्यमें भी यह सिद्धान्त विदित है । मानवीय बुद्धिकी अल्पता और सर्वधर्म समन्वयकी दृष्टि से यह दृष्टान्त इतना महत्त्वपूर्ण है कि प्रसिद्ध सूफी कवि मलिक मोहम्मद जायसीने भी इसका उद्धरण अपनी ' अखदावर 'में लिया है। [ देखो : अनुसंधान टाइटल पृष्ठ : ३] For Private And Personal Use Only
SR No.521697
Book TitleJain_Satyaprakash 1953 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1953
Total Pages28
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size13 MB
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