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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १०४ ] www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ नागौर - चैत्य - परिपाटी पुर नागोर नगीनो नाम, जिणहर सात तिहां अभिराम । एक एक पाहइ अति चंग, निरखंता उपजई मन रंग ॥ १ ॥ प्रथम भवनि श्री शांतिजिणंद, तस पाय नमता हुइ आनंद । पीतलमय मूरति अति सार, दीसह समोसरण विस्तार ॥ २ ॥ बीजइ भुवनइ नाभिनृपपुत्र, नमता नरभव हुइ पवित्र । त्रीजर पीतलमइ जिन वीर, प्रणमुं अविचल साहस धीर ॥ ३ ॥ चउथ पंचम जिनवर वली, ऋषभदेव प्रणमुं मन रली । छह जिणहर श्रीजिण पास, प्रगट प्रभाव पूरइ आस ॥ ४ ॥ सातमहं वीर जिणंदु अभिराम, वसही 'नारायणनई नामि । जीरण जिणहर अतिशोभंत, ए सातइ जिणहर सुमहंत ॥ ५ ॥ नित प्रति ए जिणहर सहु नमई, छोडी प्रमाद प्रभातनइ समइ । अतिघण संपद पामहं सही, विधि शुभ गति जुगति सवि लही ॥ ६ ॥ जे जिन नमइ सदा कर जोडी, ते पामहं मनवंछित कोडी । [ वर्ष १२ कहि श्रीविशालसुंदरगुरुसीस, सकल संघ पूरवो जगीस ॥ ७ ॥ ॥ इति नागपुर - चैत्य - परिपाटी ॥ ( कृपाचन्द्रसूरिज्ञानभंडार, गुटका नं. २८ में ) १ नारायण वसहीकी प्रतिष्ठाका उल्लेख उपकेशगच्छ प्रबन्धमें है, उसके अनुसार यह मंदिर बहुत प्राचीन है । इस प्रबन्धका सार इस प्रकार है " कृष्णर्षि नागपुर गये । वहां के श्रेष्ठी नारायणको प्रतिबोध दे कर गुरुकी सम्म तिसे वहां फोटके स्थान पर जैन मंदिर बनवाया । श्रेष्ठीने कृष्णर्षिको प्रतिष्ठा करनेकी विनंती की, पर उन्होंने श्रीदेवगुप्तसूरि पूज्य हैं इस लिए उनसे करानेका कहा । अतः सेठने उन्हें गुजरातसे आमंत्रित कर प्रतिष्टा करवाई और ७२ गौष्टिष रखे इससे नागपुर में जैनधर्मवा साम्राज्य फैला । " प्रबंधके अनुसार कृष्णर्षिका समस ५ वीं शताब्दिसे पहेलेका ज्ञात होता है, पर अन्य साधनों पर विचार करनेसे उनका समय ९ वीं शताब्दिका ज्ञात होता है । लोकाres पट्टावलीमें ओसवाल जातिके वर्तमान सूराणा गोत्रवालोंका सं. ११३२ में नागौर आकर अभ्युदय होनेका उल्लेख इस प्रकार हैं " तत्पट्टे सं. ११२३ श्रीपरमानन्दसूरिर्जातः । तस्मिन् गुरौ जाप्रति ११३२ वर्षे सूरवंश: कुतश्चित् कर्मदोषात् तुच्छतां प्राप्तः परिवारेण । ततो गुरुणाऽऽज्ञप्तं भो यूयं नागोरनगरे वसतां, तत्र स्थितानां भवतां महानुदयो भावीति श्रुत्वा सुरवंशओ कामदेवसँधपतिः सकलत्र एव नागोर नगरे उषितः । सं. १२१० बर्षे सुखेन तत्र प्रतिवर्ष महती कुलवृद्धिर्जाता । "" For Private And Personal Use Only २ खेद है कि उनके शिष्य यति तिलोकचन्द्रजीने इस भण्डारको बेच डाला है । पता नहीं अब यह गुटका कहां है । उपर्युक्त चैत्य - परीपाटीकी नकल हमने करीब १० वर्ष पहेले की थी!
SR No.521628
Book TitleJain_Satyaprakash 1947 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1947
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size18 MB
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