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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३६ ] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [ वर्ष ११ पहले पथमें पंचवर्षात्मक युगके दस विषुवोंमेंसे दक्षिणायनके पांच विषुत्र याने शरदसंपात के समय सूर्यका नक्षत्र वासु - वायुदेवताका या स्वाति और उत्तरायणके पांच विषुव याने वसंतसंपातके समयका सूर्यका नक्षत्र अश्विदेवका याने आश्विनी होता है ऐसा कहा है। यह पद्य ग्रन्थके प्रतिपाद्य विषयसे संगती रखता है । पद्य नं. २८४ और २८५ में पंचवर्षात्मक युग दस विषुव कौनसे पर्वमें आते हैं उसका विवरण है । पथ नं. २८६ में इन दस विषुवोंकी तिथियां दी गईं हैं। और पथ नं. २८७में इन विषुवोंके दिन के चंद्रके नक्षत्र बताये गये हैं । अब आया २८८ वा पथ - इसमें सूर्यके नक्षत्र लिखे हैं, यह प्रतिपाथ विषयका क्रमप्राप्त विस्तार और तर्कसंगत विवेचन है । विषुव दिनोंके पर्व, तिथि, चंद्रनक्षत्र और सूर्यनक्षत्र कहने में एक भी विषय प्रक्षिप्त हो नहीं सकता । अब रहा दूसरा पथ । इसमें विषुव दिनोंके लग्न बताये गये हैं। आचार्य मलयगिरि - जीकी टीका अनुसार उसका अर्थ युगके पांचों भी दक्षिणायन विषुवोंका लग्न आश्विनी और उत्तरायण विषुवोंका लग्न स्वाती होता है ऐसा है । संभव है किसी वाचकको यह पथ प्रक्षिप्त ही नहीं तो एक भूलभरा हुआ प्रतीत होवे, क्योंको इसमें आश्विनी और स्वातीको लग्न कहा है । प्रचलित ज्योतिष की दृष्टिसे राशियों को -लम कहते हैं, न कि नक्षत्रोंको। और पांच वर्षोंके अंदर, छे महिनेके अंतरसे आनेवाले विषुवों में पांचों उत्तरायणके विषुवों का एक ही स्वाती लग्न और वैसे ही दक्षिणायनके विषुवोंका एक ही • आश्विनी लग्न होना दिखनेमें असंभव सा मालूम होता है। किंतु इस विषयका सूक्ष्म अभ्यास करने से यह स्पष्ट होता है की इस पद्यका स्थान और विषय भी बिलकुल यथार्थ और योग्य है। जो कुछ भूल हो गई है वह पद्योंको नंबर देनेमें हुई है, अन्यथा नहीं । माग्राशि कालीन लग्नप्रणाली भारतीय ज्योतिष में, वेद-वेदांगों में राशियां नही मिलतीं; सब गणना नक्षत्रों के सहारे ही की जाती हैं । जैन ज्योतिषमें भी सूर्यप्रज्ञप्ति आदि प्राचीन सूत्रग्रन्थ और ज्योतिष करंडक में भी राशियों का पता नहीं है । इन ग्रंथोंमें प्राग्ाशि कालीन ज्योतिषकी अवस्थाका चित्रण है । वेदांग ज्योतिष में भी राशि नहीं होते हुए भी लग्नका संबंध आया है, और वह नक्षत्रसे संबंध रखता है, जैसा कि ज्योतिष्करंडक में है । केवल ज्योतिष्करंडकसे ही देखा जाय तो लग्न नाम धारण करनेवाले नक्षत्र और उसी दिनके सूर्यके नक्षत्र भिन्न होते हैं । उपर दिये हुए पययुगल मेंसे पहेले पथमें दक्षिणायन विषुवका सूर्यनक्षत्र स्वांती और दूसरे पथमें दक्षिणायन विषुवका लग्न आश्विनी दिया है। वैसा ही उत्तरायण विषुव (वसंतसंपात दिन) का सूर्यनक्षत्र आश्विनी और लग्न स्वाती बताया है । 1 ज्योतिष्करंडक में जो लग्न दिये हैं वे अपने अपने विषुव दिनोंमें सायंकालमें ही पूर्व For Private And Personal Use Only
SR No.521619
Book TitleJain_Satyaprakash 1946 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1946
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size18 MB
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