SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " પૂજનમે ભી દયા सूत्रोमें तो ' स्थलजाइ ' 'जलजाइ ' ऐसे शब्द हैं किन्तु 'वैक्रिय ' का नाम तक नहीं है इस लिए 'स्पष्ट वैक्रियसे फुल वरसानेका लखा है ' ऐसा विना पाठ दर्शाये लिखना वांचकोंको भ्रममें डालना मात्र है। और सूत्रका आशय भी ऐसा नहीं निकलता कि केवल वैक्रियकी ही वृष्टि हुई है । 'पुरिषसिहाणं' आदि स्थलोंमें उपमावाची शब्दके विना जोडे ही जब बन गये तब यहां क्यों नहीं ' ऐसा लिखना भी गलत है। 'देवाय ' जब बनता है तो 'सर्वाय' क्यों न बने ? ऐसे बकनेवालोंकी तरह तुम्हारी दलील है। पुरुषसिंहेन्यः इत्यादि स्थलोमें तो उपमावाचक शब्द है ही है, नहीं है ऐसा कहना व्याकरणशास्त्रको एकदम अनभिज्ञताको जाहिर करना है। विजयानन्दसूरिजीके पाठकी अक्षरशः सिद्धि करनेका विलंब नहीं है, कोई बच्चा उसका खंडन करनेके लिए कलम उठाकर लिखेगा, इस भवमें या भवान्तरमें, तब सिद्ध करेंगे। 'केवल वह पाठ खोटा है। ऐसा कहनेसे खोटा सिद्ध होता नहीं, अगर सिद्ध होता हो तो मैं भी कहता हुं कि वह सच्चा है। बहुत कालसे परिगृहीत वस्तुको कोई समझकर त्याग करता है, और त्याग करके भी उदासीनताका अनवलंबन नहीं रखते हुए जब वस्त्वन्तरको ग्रहण करता है तब निष्पक्षपाति पुरुषों को अवश्य ही कहना होगा, कि उस व्यक्तिने छोडी हुई वस्तुमें अवगुण का जानकर के हो परित्याग किया और अन्य बस्तुका जो ग्रहण किया उसमें यूर्ववस्तुमें परिदृष्ट अवगुणोंका अभाव देखा, अन्यथा वह उसका परिग्रह ही नहीं कर सकता, क्योंकि वह तो अज्ञ नहीं है किन्तु समझदार है, तो इसमें निष्पक्षपातसे यही सिद्ध होता है कि पूर्व वस्तुसे यह वस्तु श्रेष्ठ है। जो पुरुष मिथ्यात्वको छोडकर सम्यक्त्वको ग्रहण करता है, तो पूर्व भावोमें उपेक्षणीय बुद्धि हुए विना ही स्वीकार करता है ? नहीं। तो एवं च इससे भी उत्तर वस्तुको सत्यताको पुष्टि ही होती है। इसीसे मूर्तिपूजकका मत सच्चा कहना ही होगा। उन्होंने अपनेमें शिथिलताके कारण ही पूर्ववस्तुको छोडा ऐसा कहना भी गेल्याजबी है, क्योंकि वे हैं समझदार, युतायुक्तका परिशीनल करनेवाले, हजारोंके उपदेशक, वैराग्यभावनामें अतीव दृढ । इस लिए शिथिलताका कारण कहना बहाना है। इस तरह प्रत्यालोचनाको कहींपर संक्षिप्त रूपसे, कहींपर विस्तृत रूपसे और कंहीपर प्रत्यालोचकका असंबद्ध प्रलाप होनेके कारण उपेक्षासे खंडन किया गया है। विशद रूपसे अनेको प्रमागों द्वारा अगर खंडन किया जाता तो लेख अतीव विस्तृत हो जाता, यदि इस पर भी कोई कलम चलानेका साहस करेगा तो उसका भी जवाब दिया जायगा, परन्तु इसका खंडन करना दःशक्य है, और लेखकका मर्म नहीं समझकर यदा तद्वा लिग्वे बह बात जुदी है। सम्पूर्ण For Private And Personal Use Only
SR No.521607
Book TitleJain_Satyaprakash 1945 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1945
Total Pages24
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy