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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [१र्ष १० है। तेरापंथीका दयादान छोडना और तुम्हारा मूर्तिपूजाका छोडना इन दोनोंमें फरक नहीं है, उद्देश्य एक ही हैः वे भी हिंसाके भयसे छोडते हैं और तुम भी। 'प्रभु पूजा नहीं छोडी' यह तो गलत है, क्योंकि चार निक्षेपके विना कोई कार्य होता नहीं है । डाक्टरका दृष्टान्त यदि दिया जाय तो भी जो हितकर्ता है उससे कार्य करने पर किसी जीवको चोट पहुंच जाय तो भी वह अहितकर्ता या हिंसक नहीं कहा जाता-इतना ही साधर्म्य उस दृष्टान्त द्वारा विवक्षित है, न कि तुम्हारेसे कल्पित प्रमाण दृष्टान्तका यावद्धर्म । जिस उद्देशसे दृष्टान्त दिया जाता है उसी अंशमें वह दृष्टान्त कहलाता है न तु सर्वांशमें । यदि सर्वांश विवक्षित हो तो वह दृष्टान्त ही नहीं हो सकता, ऐसा तुम भी अनेकों स्थलमें लिख चुके हो; अपने दुराग्रहको पूर्ति के लिये अपने कहे हुवे वचनसे विरुद्ध आचरण करना बुद्धिमत्ता नहीं हैं । न्यायाधीशके दृष्टान्तको भी उलटा हो समझकर कुछका कुछ लिख मारा है, क्योंकि प्रश्नकर्ताका साध्य, हेतु क्या है यह नहीं समझ कर ही ' मुखमस्तीकि वक्तव्यं दशहस्ता हरीतकी' ऐसे न्यायका अनुसरण किया है । ' नियमानुसार कार्यकरते समय अवान्तर हिंसाका संभव हो तो भी वह हिंसक नहीं कहलाता ह'-इस साध्यहेतुभाव में ही न्यायाधीशका दृष्टान्त है। यह नियम सर्वसंमत है, नहीं तो साधुओंको विहार करना, गोचरी आदि लेनेको जाना, इत्यादि कार्य करते हुए भी साधु महाहिंसक कहलायेंगे। अतः न्यायाधीशका तुम्हारा लेख विना समझका है। तुम जो सर्वाशमें दृष्टान्तको घटाने की चेष्टा करते हो इसी लिए सूरिजोने-यह दृष्टान्त ही नहीं दे सकते ऐसा कहा है। धर्म-नीतिमें लौकिक दृष्टान्त असंगत है-यह बात भी खोटी है। धार्मिक वस्तुओं की सिद्धि करनेके वास्ते शास्त्रकारों अनेक लौकिक दृष्टान्तोंको देते ही है, जैसे धर्माधर्मको सिद्धि करनी, परलोककी सिद्धि करनी इत्यादि । पंचत्रतसे अतिरिक्त कोई भी आत्मविनाशका कारणभूत कार्य नहीं करना चाहिए, ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं है, जिससे मूर्तिपूजा आदि अनुपादेय हों। और मूर्तिपूजा आश्रव ही है यह बात भी बिलकुल असिद्ध ही है। ___ आवश्यक और अनिवार्य कार्य करनेमें अवान्तर रूपसे जीवोंकी हिंसाका संभव होने पर भी आवश्यक कार्य छोडा नहीं जाता है, यथाविधि यतना पूर्वक उक्त कार्य किया जाता है; जैसे बरसते हुए पानीमें स्थंडिल जाना, नदी उतरना, पानीमें बहती हुई साध्वीको निकालना एसे अनेकों कार्य किये जाते हैं। जैसे इन कार्यो में अवान्तर हिंसा होने पर भी महान लाभ है उसी तरह मूर्तिपूजामें भी समझना चाहिए । जैसे बची हुई साध्वी मिथ्यात्वी, अनार्य वा क्रूर ब्यक्तिको मिथ्यात्वसे हटाकर आर्य दयालु और सम्यकिती बनाती है, उसी तरह प्रभुमूर्तिके दर्शन करनेवाले मिथ्यात्वी, अनार्य मनुष्यको उस मूर्ति द्वारा प्रभुके स्मरणसे सम्यक्त्वका उदय For Private And Personal Use Only
SR No.521606
Book TitleJain_Satyaprakash 1945 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1945
Total Pages28
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size14 MB
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