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४० ] श्रीन सत्य प्रश
[ वर्ष १० जीवको कसाई ले जाता हो और उसीको अगर कोई दयावान पुरुष उठाकर अव्याबाध रूपसे उत्कृष्ट स्थान पर रखता हो तो इन दोनोंमें किस पुरुषकी जीव पर दया हुई ? इस युक्ति पर ही सूरिजीका सारा लेख है। इसको न समझते हुए अज्ञान बनकर यद्वा तद्वा कहे इससे कोई न्याय नहीं होता है । वृक्षसे तोडनेकी बात शास्त्र या सूरिजो कहीं पर दर्शाते नहीं है। इस लिए सूरिजीके गुरु पत्र पुष्पका तोडना और पशुका मारना जो जीव अदत्त लिखते हैं. यह यथार्थ ही है; और सूरिजी भी ऐसा ही कहते हैं। "जो कि साधुके विहार खानपान आदि अत्यावश्यक क्रियाओंसे व्यर्थ और निरर्थक ऐसी मूर्तिपूजाकी बराबरी करना मात्र अज्ञानता है" ऐसा लिखना यह भी सफेद जूठ है क्योंकि मूर्तिपूजाको अभी तक व्यर्थ और निरर्थक साबीत करनेमें असफल ही रहे हैं । अत्यावश्यक क्रिया होनेसे उसके अन्दर होनेवाली हिंसाको कौन दया कह सकता है ? जिसमें हिंसा होती हो वह कार्य दयावान पुरुषके लिये सर्वथा त्याज्य ही है जब ऐसा तुम्हारा सिद्धान्त है तब फिर तुम अत्यावश्यक कहकर हिंसासे छुट नहीं सकते हो । इस लिए अत्यावश्यक होने पर भी हिंसा करे तो जिस पुरुषको मांसादि भक्षण किये बिना चल नहीं सकता, उसके लिए हिंसा अत्यावश्यक हो जानेसे कया उसको अहिंसक या दयावान कह सकते हैं ? जब नहीं तो अत्यावश्यक कहकर छुटकारा नहीं पा सकते हो। शास्त्रकी आज्ञा तो जैसे विहार आदिमें ऐसी प्रभुपूजामें भी समान है, तब अत्यावश्यक इत्यादि हेतु लगाना व्यर्थ है । शास्त्रका ही पुरावा देना चाहिए। महिमाके विषयमें तो केवल जूठा सहारा कहकर पल्ला छुडाया, मगर जूठ साबीत कर नहीं सके, इस लिए हमें इस पर विचार करनेकी आवश्यकता नहीं । समवसरणकी रचना विशेष कारणोंसे होती थी, हमेशा नहीं, यह लिखते हो, ठीक है, परन्तु उसकी रचनामें हिंसा नहीं होती थी इसका तो कुछ भी समर्थन नहीं कीया । जो विशेष कारणोंसे होता है उसमें हिंसा नहीं होती है ऐसा कोई नियम नहीं है। जरूर 'जैनधर्म तीन करण तीन योगका होना मानता है। साधुओं के विषय में तो सभी विषयको लेकर तीन करण तीन योग हो होता है ऐसा जैनधर्मका सिद्धान्त नहीं है। किसी विषयमें तीन करण होते है और किसीमें एक भी, ऐसा ही सिद्धान्त है । इस लिए तीन करण होना ही चाहिए, अन्यथा एक भी नहीं होना चाहिए, ऐसा नियम करना, जैन सिद्धान्तसे बाहर ही है। सूत्रोंके प्रमाणों और सूरिजोकी तथा हमारी युक्तियोंसे भी अकाट्य रूपसे मूर्तिपूजा सिद्ध हो चुकी है, जिसका खंडन कोई भी कर नहीं सकता, तब ‘विना प्रमाण एवं युक्तिके मूर्तिपूजाको आवश्यक लिखना मतमोह है '1-ऐसा लिखना केवल अज्ञान मात्र ही है एवं च मूर्तिपूजा सप्रमाणिक है और स्मरणादिकी तरह आत्मविशुद्धि का हेतु होनेसे अवश्य उपादेय है, सार्थक है, प्रभु आज्ञा सहित है, लाभ बहुत है; हानि है नहीं।
(क्रमशः)
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