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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७८ શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [वर्ष नहीं । सैन्धव शब्दका प्रयोग करने पर 'अश्व' इस शब्दका अर्थ है और लवण आदि उस शब्दका विपरीत अर्थ है ऐसा कोई बुद्धिमान कहनेका साहस नहीं करता है। अनेक अर्थवाला चैत्य शब्द अगर न होता तो चैत्य शब्दका विवक्षित अर्थ बतानेके लिए सुप्रशस्तमनोहेतुत्वात् यह हेतु नहीं दे सकते । जहां पर माना अर्थको कहनेवाला शब्द होता है और वह शब्द अपने योगार्थमें जाता हो तो उन उन स्थलोमें विशेष अर्थको लेनेके लिए ही उस शब्दके अलाधारण वाच्यको हेतु रूपसे दिखलाया जाता है । यह सब वाच्यवाचक के सामर्थ्यको नहीं समझते हुए, विशेषज्ञोंको शिक्षा लेनी चाहीए, ऐसे शब्दोंका उपयोग करना अपनी बद्धिहीनताको ही सूचन करता है। घोडेको सैन्धव विठोषण देने मात्रसे सैन्धव शब्दका लवण अर्थ नहीं होता है यह कभी सिद्ध नहीं हो सकता । जिनेश्वर भगवानको और उनकी मूर्तिको चित्तप्रसन्नताका हेतु सूरिजी मानते हैं इस लिए प्रायश्चित्त तमको लेना चाहिए कि प्रभमतिकी आशातना कर रहे हो । 'हमारा समाज समवसरणमें प्रभुके चार रूप मानता है जिसमें एक मूल रूप और तीन उसकी प्रतिच्छाया होता है' यह तीन जो प्रतिच्छाया मानते हो वह प्रतिच्छाया सचेतन है या अचेतन ? सचेतन तो है ही नहीं, सचेतन तो केवल मूलरूप ही कहलाता है, अगर वह तीन भी सचेतन हो तो चारों रूप एक समान होनेसे मूलरूप ही कहलायेंगे और प्रतिच्छाया उड जायगी। अगर अचेतन मानो तो वह वंद्य है कि अबंद्य है ? तुम्हारे हिसाबसे तो वह अवंद्य ही है, क्योंकि जिसमें प्रभुका निवास एक समयके लिये भी नहीं था वह वंद्य नहीं है ऐसा तुम्हारा लेख है। इससे प्रतिच्छाया निरर्थक ही होगी। अगर बंद्य कहो तो उसमें चेतनका संबंध ही नहीं है फोर भी वह वंद्य क्यों ? और चंद्य भी हो तो क्या वह नाम, स्थापना, द्रव्य या भाव है? नाम तो है ही नहीं, क्योंकि वह वर्णात्मक नहीं, स्थापना भी नहीं कह सकते हो, स्थापना पंद्यतया अस्वीकृत है, द्रव्य भी नहीं क्योंकि भावना कभी भी इसमें वर्तन नहीं है, भाव भी नहीं, वह तो मूलरूप है, फीर भी अचेतन प्रतिकृतिको बंद्य मानो तो भाव संबंधी मूर्तिको पूज्य मानना ही होगा। ऐसी तुम्हारी युक्तियोंसे भी मूर्तिकी वंद्यता सिद्ध ही है । ' वगैर पूजाके भी स्मारक रूपले इतिहाल रह सकता है' ठीक है, परन्तु पूजाके तौर पर भी इतिहास रह सकता है, उसी इतिहासकी क्षति बताई गई है। ऐसे पूजककी स्मारक मूर्तियोंका इतिहास भी जैन समाजमें बहुत है और अनेकों अजायब घरों में निदर्शन रूपसे रक्खे गये हैं, जिनको देखकर जनताको ये मूर्तियां कभी पूजी जाती थी ऐसा अनुभव होता है । आगे जाकर लिखते हैं कि “ऐसा प्रतिरूपसे ही हो सकता है, मूर्तिसे नहीं, मूर्ति तो हलन चलन आदि रहित स्थिर रहती है." यह भी एक तरहसे अतिशयमें अश्रद्धाको ही सूचन करता है। किसीके सामने कोई दर्पण रखकर प्रतिच्छाया संपादन करे तो क्या यह भी अतिशय है ? किन्तु मूर्तियोंका निर्माण करके उनमें तथाविध चेष्टाका संपादन कराना यही देवकृत अतिशय है और ऐसा माननेसे ही प्रभुका अतिशय कायम रह सकता है और है भी ऐसा ही। दर्पणके विना प्रतिच्छाया उन लोगोंने की यही अतिशय है ऐसा कहना भो रूपान्तरसे सूर्तिको स्वीकारना हो है। प्रतिच्छाया तो चमकवाले पदार्थमें ही होती है। (संपूर्ण) For Private And Personal Use Only
SR No.521603
Book TitleJain_Satyaprakash 1944 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1944
Total Pages19
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size10 MB
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