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पूज्यताका विचार लेखक-पक्य मुनिमहाराज श्री विक्रमविजयजी [भा. म. श्रीविजयलब्धिसूरीश्वरशिष्य']
ता. ३१-३-४२ के स्था. पत्रमें डोसीजी लिखते हैं कि 'इन्द्रों द्वारा तीर्थंकरोंका जन्मोत्सव किया जाना, दाढाओंकी पूजा होना ये धार्मिक कृत्य नही हैं' उनका यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जंबूद्विपप्रज्ञप्तिमें साफ साफ कहा गया है कि 'केह जिणभत्तीए' अर्थात् कितनेक जिनेश्वर भगवानकी भक्तिसे दाढाओंका ग्रहण और जन्मोत्सव करते हैं। तो फिर त्रिभुवनस्वामीका जन्मोत्सव और दाढाओंकी पूजा करना धार्मिक कृत्य क्यों नहीं? प्रभुका जिन दाढाऔंसे संबंध है उनकी पूजामें जो लोग धार्मिकता नहीं स्वीकारते हैं उन लोगोंको नामका सहारा भी छोडना चाहिए, क्योंकि दाढा तो साक्षात शरीरका अषयव होनेके कारण भाव तीर्थकरके संबंधसे युक्त है। नाम तो दूर है। और सूत्रोंमें भगवानका जन्मोत्सव और दादाओंकी पूजाको अधार्मिक कहा ही नहीं हैं। किन्तु 'केर जिणभत्तीए' इत्यादि तो कहा ही है। जिन क्रियाओंको साधु करे थे क्रियाएं ही धार्मिक हैं ऐसा कोई नियम नहीं है। क्योंकि श्रावक दान क्रिया करते हैं, साधुओंकी स्मशानयात्रामें जाते हैं, और साधु न तो दान देते हैं या न तो स्मशानयात्रामें भाग लेते हैं, तो भी इन कार्यो को अधार्मिक नहीं कहा जाता है।
तीर्थंकर प्रभु लोकोत्तर पुरुष हैं अतः इनके लिये दूसरोंके उदाहरण निकम्मे हैं । जन्मसे ही तीर्थकर प्रभु अतिशयवाले होते हैं, गर्भ रहने पर भी इन्द्रोदारा नमुथ्थुणं से स्तुति किये जाते हैं । सेनप्रश्नमें किसी भी स्थान पर गृहषासमें रहे हुए तीर्थकर, साधुको नमस्कार करते हैं ऐसा पाठ है ही नहीं इस लिए सेनप्रश्नके नामसे डोसीजीने जो लिखा है वह यथार्थ नहीं है।
'गृहवास छोडने पर ही ये साधुओंके लिए वंदनीय हो सकते है' पेसा लिखते हो तो क्या, उनके पूर्ववर्ती साधुओंसे वे पंदनीय होते हैं कि पश्चादवर्ती साधुओंसे ? पूर्ववर्ती साधुओंसे वंदनीय हो सकते हैं तो किस शाबके आधारसे ? और पश्चाद्वर्ती साधुओंसे वंदनीय होते हैं तो इसमें कोई आधर्यकी बात नही हैं, क्योंकि उनसे इतर साधु भी पश्चादवर्ती साधुओंसे पंदनीय होते ही हैं, तो फिर गृहवास छोडनेपर इत्यादि लेख निरर्थक ही रहा । 'देवों या इन्द्रोंका अनुकरण करनेवालेको विवाह करवाने में भी धर्म मानना चाहिए' इसका जवाब यही है की कर्तव्यमें देव व इन्द्रों का अनुष्ठान ही प्रयोगक है ऐसा कोई नियम नहीं है। और इन्द्रोंने सभी तीर्थकरोंका विधार होत्सव कराया नहीं है, और जन्मोत्सव और पूजन आदि तो सभी तीर्थक. रोका इन्द्र और देव करते ही हैं।
जैन मनताके लिये देव और गुरु दोनों पूज्य हैं फिर एकका द्रव्य और स्थापना पून्य है तो दूसरोका क्यों नही?' इस लेखसे पूज्यतामें प्रयो
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