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શ્રી જેને સત્ય પ્રકાશ મને દીક્ષા આપે. મારા મને રથ પૂરવાને કામધેનુકલ્પ દીક્ષા મને કંઈ દુષ્કર નથી. પરતુ મારી એક વિનંતી છે કે મારી ઉપર કૃપા કરીને મને દીક્ષા આપીને તરત આપે અન્ય સ્થાને વિહાર કરવો જોઈશે, કેમકે રાજા અને નાગરિકે જો હું અહીં હઈશ તે મારા તરફના પ્રેમને કારણે મને સંયમથી વ્યુત પણ કરશે.” આરક્ષિતજીએ કહ્યું. આચાર્ય મહારાજ તેમને દીક્ષા આપીને અન્યત્ર વિહાર કરી ગયા, અને સારી રીતે ભણાવી વિશેષ ભણાવવા માટે તેમને શ્રી વાસ્વામીજી પાસે મોકલ્યા. ત્યાં કેટલાંક વર્ષ બાદ તેમના ભાઈ તેમને બોલાવવા આવ્યા, તે આપણે પૂર્વે જોઈ ગયા.
આર્યરક્ષિતજી મહારાજ ભાઈના આગ્રહને વશ શું કરે છે? તથા તેમના શિષ્યમાંના એક શિષ્ય સાતમા નિહ કેવી રીતે થાય છે? તે સર્વ હવે પછી જોઈશું. (ચાલુ)
'ठवणासच्चे लेखक:-पूज्य मुनिमहाराज श्री विक्रमविजयजी ता. १६-३-४२ के 'स्थानकवासी जैन ' पत्रमें डोसीजीने जो लिखा है उसका जवाब इस प्रकार है 'जैसे लाठीके घोडे बनाकर खेलते हुए लडकोंके आगे तेरे घोडेको इधर हटाव ऐसे बोला जाता है, न कि तेरी लाठीको हटाले ऐसा। यहां स्थापनाके सत्यका बराबर अर्थ निकलता है।' ऐसा सूरिजीका कथन है । तुम- हमें भी मान्य है, यही भाव हमने भी बताया है, परंतु इससे मान्य मूर्तिपूजा तो सिद्ध नहीं होती है ' ऐसा भी कहते हो और आगे चलकर स्थापनाके नाते ब स्थापनाकारको बुरा नहीं लगे इसीलिये लाठीको घोडा कहा जाता है ' ऐसा भी लिखते हो। जरा सोचो,स्थापनाकारको बुरा क्यों लगे ? उसको लाठी कह देनेसे, स्थापनाकारको अप्रसन्नतारूप अशुभ भाव उत्पन्न होता होगा, और उसको घोडा कहनेसे स्थापनाकारको प्रसन्नतारूप शुभ भाव उत्पन्न होता होगा तब ही न ! असदश घोडेकी स्थापना भी जैसे स्थापनाकारको शुभ भावोत्पादक होती है, उसमें कोई भी खलेल नहीं डालना चाहीए, डाले तो पाप है, इसी तरह सदृश मूर्ति स्थापना भी स्थापनाकारको शुभ भावोल्लासक है, एवं उसमें खलेल डालनेसे मूर्तिविरोधियोंको महापाप लगता है, यह भी मान्य ही हुआ । २०-२५ लाठियोंका बयान भी उचित ही है । साक्षात् जो वस्तु जितना काम कर सकती है, स्थापित वस्तु या नाम भी इतना ही काम करता है ऐसा कौन मानता है ? स्थापित वस्तु सर्वथा काम नहीं करती है, यही तो हमारा खंडनीय विषय है।
सोलहवें प्रकरणको आलोचनाके उपर जो आक्षेप किया है, यह तुम्हारी स्याद्वादकी सर्वथा अनभिज्ञताको बता रहा है । जिस तरह नाम जड होते हुए भी वह भगवानका वाचक होनेसे उसका भगवानसे कथंचित् अभेद है, उसी तरह मूर्ति ( स्थापना ) के साथ भी उनको कथंचित् अभिन्नता है । ' कौनसा पर्याय मूर्तिमें है' यह प्रश्न उपेक्षणीय है, क्योंकि मूर्तिके पर्याय वंद्य है, ऐसा सूरिजीने कहा ही नहीं है, आर जो कहा उसका मतलब तुम
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