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२५४१-७] "हिन्त-येत्य" अथ
[१८७] चैत्य नाम है एसे भिनु श्रमण निर्गन्थ नाम होते हुए भी चैत्य नामसे इनको पुकारा जाता है। ऐसे ही अश्व तुरगादि शब्द होते हुए भी इसका चैत्य भी एक नाम है, वह भी प्रमाणसिद्ध है, ऐसा कहेगा तो क्या वह मान्य हो जायगा ? 'अरिहंत चेइयाणं' इत्यत्र किसी ग्रंथकारने चैत्य शब्दका अर्थ ज्ञान किया हो तब प्रमाण कहा जा सकता है और ज्ञान अर्थके लिए जो समवायांग और लोकप्रकाशका प्रमाण दिखलाया वह केवल दिखलाया ही है कुछ सिद्धि की नहीं। वहां ज्ञान शब्द आजाने मात्रसे चैत्य शब्दका वह अर्थ है ऐसा साबीत नहीं हो सकता है, अगर ऐसा हो तो 'आम्रवृक्षाः' 'येषामुपरि कोकिला निवसन्ति-कोकिलाधारवृक्षा वा' ऐसा कहनेसे आम्र शब्दका भी कोकिल अर्थमें प्रयोग मानना पडेगा इस लिये इन ग्रंथोंसे आपकी इष्टसिद्धि नहीं होगी ।
श्रेणिक शुद्ध समकित दृष्टि थे, यह बात तुम भी मानते हो, तो समकित दृष्टि मनुष्य अवश्यमेष देवगतिमें जाता है यह जैन सिद्धांतका अटल एवं अडग सिद्धांत है, अब कहीये-श्रेणिक महाराजा शुद्ध समाकितवंत थे तब नरकमें क्यों गये? कहना होगा नो सूरिजीने कहा है कि आयुबंध होनेके बाद चाहे जैसी धर्मकरणी करे तो भी उसकी आयुका पलटा नहीं होता है। सरिजीके इस खुलासेकी शरण लिये विना गुजारा नहीं हो सकता है। क्या यह सरिजीकी चालाकी है या सिद्धांतकी जानकारी है ? सिद्धांतकी जानकारी की बात होने पर भी चालाकी मालूम हो तो दुर्भाग्यके सिवाय और क्या हो सकता है?
महाराजा श्रेणिकके नरकगमनका कारण बतलाते आपने जो लिखा है कि--' श्रेणिक किंचित् भी प्रत्याख्यान करने के योग्य नहीं थे, वे नवकारसी जैसा सामान्य तप भी नहीं कर सकते थे' इसके विपरीत सरिजी बतलाते हैं 'यह बिलकुल असत्य है,' मूर्तिपूजक समाज तो सूरिजीने जो कारण बताया है इसीसे ही श्रेणिककी नरकगती मानती है । श्रेणिकने साक्षात् प्रभुकी सेवा तो की थी, फिर वह नरकमें क्यों गया ? इसके जवाबमें डोसीजी लिखते हैं कि-'श्रेणिक प्रभुसेवा, धर्मप्रभावना आदि चतुर्थ गुणस्थानक की करणीके योग्य था, और उसीके फलस्वरूप उसने प्रबल पुण्य उपार्जन कर तीर्थंकर गोत्र बांधा', कैसी सिद्धांतकी जानकारी! क्या अमारिप्रवर्तन, धर्मप्रभावना, प्रभुभक्ति, पंचमगुणस्थानकवाला श्रावक नहीं करता है ! इन करणीऑको चतुर्थ गुणस्थानककी करणीके योग्य कहना, सिद्धांतकी अनभिज्ञता को बतलाना है। फिर लिखते हैं कि इनका मूर्तिपूजाका कथन झूठा या श्रेणिकको अयोग्य ठहराने का सिद्धांत मिथ्या है' यह भी बराबर नहीं, क्योंकि वे तो १०८ जोंसे भगवानकी पूजा करते थे, इसी बातको मूर्तिपूजक समाज कह रही है, श्रेणिकने नामस्मरण, साक्षात् भाव तीर्थकरकी भक्ति, जिसको तुम स्थापनाकी अपेक्षया सर्वथा उच्च मानते हो और जिस करणीसे
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