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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१८] - શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [१८ % भी टीकाकारांने 'चैत्य' शब्दका अर्थ 'साधु' किया ही नहीं है। जहां "कल्लाणं मंगलं चेइयं” इत्यादि वाक्य उपलब्ध है वहां पर भी चैत्य शब्दका साधु अर्थ नहीं है, क्योंकि इसी वाक्य में पृथक श्रमणपद गृहीत है, इसलिये चैत्य शब्दका अर्थ साधु करे तो पौनरुक्त्य दोष आ मायगा। मालुम पड़ता है ऐसी अपार्थ कल्पनासे हो सवस्तुमें भी मूर्ति विरोधियोंकी बुद्धि मलिन हो जाती है। वहां तो चैत्य शब्द प्रतिमावाची ही है। साधुको सर्वकल्याणस्वरूप सर्वमंगलस्वरूप सर्वसेव्य भगवत्मूर्ति स्वरूपसे वर्णन किया गया है। बौद्धोंके यहां कुछ भी हो परन्तु अमरसिंह बौद्ध है और उसने अमरकोषमें चैत्य शब्द का अर्थ कहते हुए चैत्यमायतन तुल्ये ऐसा बतलाया है और ज्ञान के पर्यायोंको बतलाते हुए चैत्य शब्दका उपादान नहीं किया है । अगर उनका चैत्य शब्दसे बुद्धि अभिप्रेत होती तो पर्याय रूपसे जरूर रखते । ऐसे ही मुनिके पर्यायांमें भी चैत्य शब्द नहीं है। [पृ. २३] यक्षको चैत्य न कहा और [प. पृ. ३३] गणितासे भले ही यक्षके चैत्य भी लिये जाय तो कोई हरकत नहीं। इन दो वाक्यों में मन्दबुद्धिकी दृष्टिम बदतोव्याघात दोष दिखलाई देता है, न कि चतुरबुद्धिवालेको । 'उपचारसे 'चैत्य' शब्दसे 'यक्ष' कहा जाता है' ऐसा अगर सूरिजीका अभिप्राय हो तब वदतेोव्याघात हो सके परन्तु पूर्व वाक्य यक्षाश्रित है उत्तर वाक्य यक्षायतनसंभवाश्रित है तो किसी प्रकारसे बदतोव्याघात है ही नही, और हमारे टीकाकारने भी चैत्यं :संज्ञाशब्दत्वात देवताप्रतिबिम्बे प्रसिद्धं ततः तदाश्रयभूतं यद देवताया गृहं तदप्युपचारात् चैत्यं तच्च इह व्यंतरायतनं द्रष्टव्यं इत्यादि रूपसे यक्षायतनको उपचारसे ही चैत्य कहा है । “अन्यतीर्थिकपरिगृहीतअरिहंतचैत्यानि" ऐसी पंक्ति है। इस पंक्तिका अर्थ-“जैनत्यसे भ्रष्ट होकर अजैन बन नाना। अन्य तीर्थके सिद्धान्तको अपना लेना"-यह 'मुख्य अर्थ है ऐसा प्रत्यालोचक लिखते हैं। वे शब्दार्थसे अनभिज्ञ है अतः मुख्य अर्थकी उपेक्षा कर अर्थात्लब्ध अर्थको मुख्य बनाते है। अन्यतोथिकेन परिगृहीतानि-अन्यतीर्थिकपरिगृहीतानि, इसके सिवा दूसरा कोई समास नहीं हो सकता है, तो अन्यतीर्थिक है कर्ता, कर्म है चैत्यानि, तो 'अन्यतीर्थिकसे परिगृहीत अहंदुचैत्य' ही 'शब्दार्थ होता है । असतिबाधके इस अर्थको छोडकर अन्य अर्थकी स्वकपोल कल्पना स्वमुखप्रेक्षि जनों के लिये ही मान्य हो सकती है, न कि शास्त्रमर्यादावेत्ताओंके लिये । एवं च अर्थ तो इसका “अन्यतोर्थिकपरिगृहीतत्वोपलक्षितार्हचैत्य" अथवा "अन्यतीर्थिकपरिगृहीत अहंद चैत्यत्वविशिष्ट व्यक्ति' अथवा "अन्यतीर्थिकपरिगृहीताईचैत्यत्वोपलक्षित व्यक्ति” किंवा “अन्य तीथिकपरिगृहीतन्वविशिष्टाए चैत्य' इस प्रकार लब्ध अर्थको आर्थिक कह सकते हैं। इन चार अर्थो में दो अप्रसिद्ध है, एक वंदनीय है और पक निषेधनीय है। निषेधनीय For Private And Personal Use Only
SR No.521584
Book TitleJain_Satyaprakash 1942 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1942
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size16 MB
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