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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १०-११] સમીક્ષાભમાવિષ્કરણ प्रस्तुतनुं अनुसंधान हवे आपणे प्रस्तुत विषय पर आवीए । ते ए छे के मध माखण ने मांस मदिरा अभक्ष्य छे. तेने वापरनारमां साधुता टकी शकती नथी प वात प्रस्तुत पाठना अन्त भागमांथी कई रीते निकळी शके छे ? आना जवाबमां जणाववानुं जे आ पाठना अन्तिम भागे सूचव्युं हतुं के बेंतालीस दोषरहित जे आहार ते सुनिने वापरवा लायक छे-भक्ष्य छे. अर्थात्. ते सिवायनो अभक्ष्य छे। बेंतालीश दोषरहित आहार वापरनारमां शुद्ध साधुता छे, अर्थात् ते सिवायनो आहार वापरनारमां ते नथी । मध माखण ने मांस मदिरा तालीश दोषरहित आहार नथी कारण के मां प्रक्षित निक्षिप्त अने अपरिणत दोषो रहेला छे. म्रक्षित दोष एम जणावे ले के अचित्त या संचित एवा निन्दनीय जे मद्य वगेरे पदार्थ तेने अडकेली वस्तु लेवामां म्रक्षित दोष लागे छे । ज्यारे निन्दनीय वस्तुना संसर्गमां आवेल वस्तु लेवामां आ दोष लागे छे, त्यारे खुद निन्दनीय अने निन्दनीय सजातिना संसर्गवाळां जे मांस मदिरादि तेने लेवामां तो सुतरां लागु पडे । निक्षिप्त दोष एम जणावे छे के सचित्त वस्तुनी मध्यमां रहेल अचित्त वस्तुने पण लेवामां निक्षिप्त दोष लागे छे । ज्यारे सचित्त वस्तुना मध्यमां पडेल आहार लेवामां आ दोष लागु पडे छे, त्यारे खुद सचित्त अने सजातीय सचित्त अंशोना मध्यमां रहेल मांस मदिरामां तो सुतरां लागु पडे । अपरिणत दोष एम जणावे छे के जीवसंसक्तिवाळी वस्तु लेवामां अपरिणत दोष लागे छे. मांस मदिरा ने मध माखण जीवसंसक्तिवाळां होवाथी तेमां आ दोष लागे एतो स्पष्ट ज छे । आरीते मध माखण ने मांस मदिरा दोषत्रययुक्त होवाथी बेंतालीश दोषरहित आहारनी गण Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [११] मां आवी शके नहि अत एव मुनिओने ते अभक्ष्य छे एम सिद्ध थाय छे। तथा आ चार वस्तु बैतालीश दोषरहित नहि होवाथी तेने वापरनारमां शुद्ध साधुता न होई शके ए पण सिद्ध थाय छे। आ चार वस्तु निन्दनीय अने जीवसंसक्तिवाळी छे ए वात जैनत्वना दावो धरावनारने विदित पण छे, अने प्रसंगे अमो पण बतावीशुं । For Private And Personal Use Only आचाराङ्ग सूत्रमा विमल पाठने, सृत्रकार भगवन्तने तथा टीकाकार महाराजने अलीक स्वरूपमां चीतरी भद्रिक जीवोने भ्रमजाळमां फसाववा केवो प्रयास लेवायो छे ? शासनदेव तेने सद्बुद्धि समर्प । द्वितीय पाठनी मीमांसाने उपसंहरी तृतीय पाठनी भूमिकामां हवे पछी प्रवेश करीशुं । (ergor-)
SR No.521532
Book TitleJain Satyaprakash 1938 05 06 SrNo 34 35
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1938
Total Pages46
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size16 MB
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