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[३७८] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
[१५ भी महत्तरा पदसे विभूषित किया और उनका नाम चन्दनबाला रक्खा गया।
आचार्य पद के पश्चाद् उनका जीवन कोहिनूर हीरे के समान चमकने लगा। इनके हृदयमें धर्म के प्रति अथाग लगन थी। धर्मका गौरव बढ़ाने के बास्ते गुरु महाराज की आज्ञा लेकर मारवाड़ की ओर विहार किया। जब वे विहार करते करते आबू आए और पहाड़ पर चढ़ने लगे तब उनके साथ अम्बाप्रसाद नामक एक दीवान भी था । उसको मार्गमें काले नागने डस लिया और वह उसके विष से पृथ्वीपर गिर पड़ा। यह दृश्य देख श्री देवमूरिने उसके सामने अपनी दयापूर्ण दृष्टि फेंकी। उनकी दृष्टि, विशुद्ध चारित्रके बलसे, इस प्रकार चमत्कारिक बन गई थी कि उस दृष्टि के पड़ते ही अम्बाप्रसाद का जहर काफूर होगया और जिस प्रकार मनुष्य नींद लेकर उठता है उसी प्रकार उठ कर देवमूरि का उपकार मानने लगा।
उपर्युक्त घटना के पश्चात् यहां दूसरी घटना यह बनी कि श्री अम्बिका देवो प्रगट हो सरिजी से कहने लगो कि आप अभी मारवाड़ की ओर विराह न करो, कारण कि आपके गुरु के आयुष्य में केवल आठ ही. मास शेष रहे हैं। यह सुन देवसूरि पोछे लौटे और पाटन में आकर गुरु सेवा में तत्पर हुए। - उस समय पाटन की राजगद्दी पर प्रतापी राजा सिद्धराज जयसिंह राज्य करता था। उसको सभा में विद्वानों को अच्छा आदर मिलता था। इसलिये वहां देश विदेश के विद्वान आकर अपनी विद्वत्ता का परिचय देते थे। राजा भी पण्डितों का अच्छा आदर सत्कार करता और उनकी योग्य कदर कर पारितोषिक देता थाः
एक समय वहां देवबोध नामक भागवत पण्डित आया। उसने पाटन के पण्डितों की परीक्षा करने के वास्ते एक गूढ़ प्रलोक उनके आगे रखा और उसका अर्थ करने को कहा । वह प्रलोक निम्न लिखित था।
एक द्वित्रिचतु: पञ्चषणूमेनकमने नका : । .. देवबोधे मयि क्रुद्ध, षण्मेनकमने नका: ।।
उपर्युक्त प्रलोक को सुन समस्त पण्डित चकित हो गए। इसके अर्थको उन्होंने बहुत कोशिष की परन्तु असफल हुए। इस प्रकार ६ मासका समय व्यतीत हो गया। यह देख सिद्धराज जयसिंह को सख्त अफसोस हुआ। वह अपने मन में विचार करने लगा कि क्या गुजरात इस प्रकार निर्माल्य हो गया है कि एक श्लोक का अर्थ छ । मास में भी कोई पूरा
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