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णमो त्थु णं भगवओ महावीरस्स
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सिरि रायनयरमज्झे संमीलिय सव्वसाहुसंमइर्यं पत्तं मासियमेयं, भव्वाणं मग्गयं विसदं ॥ २
શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
પુસ્તક ૧
વિક્રમ સંવત ૧૯૯૨ ઃ પોષ શુકલા પંચમી
अण्णाणग्गहदास गत्थमरणा कुव्वंति जे धम्मिए, अक्खेवे खलु तेसिमागमगयं दाउँ विसिट्टोत्तरं ॥ सोउं तित्थयरागमत्थविसर चे मेऽहिलामा तया वाइज्जा प्वरं पसिद्धजईणं सचप्पयासं मुदा ॥ १ ॥
વીર વત ૨૪૬૨
અકર્
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: सने १८३५ ડીસેમ્બર ૩૦
સ્વામી કર્માનંદજી અને જૈનધર્મ
લેખક મુનિરાજ શ્રી વિદ્યાવિજયજી
" सर्व सज्जनको विदित हो कि मैंने निरंतर २५ वर्ष तक आर्यसामाजिक क्षेत्रमें कार्य किया है। इतने समय में मैंने आर्यसमाजकी ओरसे सेंकडों बड़े बडे शास्त्रार्थ किये तथा हजारों व्याख्यान दिये, परन्तु अब मुझे पूर्ण विश्वास हो गया है कि आर्यसमाजके सिद्धान्त मिथ्या एवं कपल कल्पित हैं । अतः सत्यको ग्रहण करने और असत्यको त्यागने के लिये प्रत्येक मनुष्यको सर्वदा उद्यत रहना चाहिये । इस उक्ति के अनुसार अब मैं आर्यसमाजके क्षेत्रसे पृथक् होता हूं । अब मैं जैनसमाज एवं जैनधर्मको सेवा करूंगा। क्यों कि- मैंने उसे सत्य समझा है । जिन समाजोंके निमंत्रण आये हुए हैं, उनसे क्षमा मांगता हूं। क्योंकि मैं वहां नहीं आ सकुंगा । अब मेरा स्थायी पता " जैनशास्त्रार्थसंघ अंबाला छावनी " होगा ।"
निवेदक- कर्मानंद ( जैन दर्शन, वर्ष ३, अंक १०)
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