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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ भावार्थ. वळी जो अन्यवादोनी साथे रहित उत्पन्नभेहनपुटदोषो लज्जावान् वा विवाद करवानो होय, सन्यास थवानो शोताद्यसहिष्णुर्वा तथा करोति सोऽयमहोय तेमज अन्य कोइ संघर्नु कार्य पवादलिङ्गः प्रोच्यते! उत्सर्गवेषस्तु उपस्थित येल होय तो चोमासामां नग्न एवेति ज्ञातव्यम् । कयो अपवादवेष मनिओने विहारनो निषेध नो. कारण छ एम प्र नउठावीने श्रुतसागररि जणावे के भनिनु संघy अने समयनु पाठान्तरे छे के कलियुगमा म्लेच्छ विगेरे लोको समदायनं कार्य अवश्य करवा लायक नागा देखीने भुनिओने उपद्रव करे छे. छे बार योगजननी अंदर कोइए सल्लेखणा माटे म माटे मांउवादमा स्वामी वसन्तकोतिष करी होय तो एक गामना भोजन मुनिआने उपदेश को हतो के तट्टोसा. अन शयन आ बे क्रियाने दरर्नु लुंगडुं पहेरी चर्यादिक करीने नहिं करता एक गाममा मोजतो पछी तेने मुकीदे. अथवा राजादिकवर्गमां बीजा गाममा शयन एम त्वराथी विहार उपत्पन्न थयेलो परम वैराग्यवान् लिङ्गकरता भुानओए योगग्रहण होय तो शुद्धिरहित लिङ्गपुटना दोषवाळो अथवा पण वर्षाकालनी अंदर जई जोईए. लज्जालु अथवा ठंडी विगेरेने नहि सहन अने तेज क्रमथो पाछा आवजोईप करी शकनार होय तो ते कोरणे तट्टीआवो प्राचीन मर्यादा छे.. सादरनां लुगड़ां पहेरे आ अपवादवेष हवे अहोया जोवान ए छ क कहेवाय छे. अने उत्सर्गवेष तो नागा दिगम्बर मान्यता प्रमाणे बर्षाका- रहे तेज छे. आ प्रमाणे अपवादमार्गे लयोगमां गमन अनाचत होवा छतां वस्त्रधारण करवानुं दिगम्बरोने मानवू पण कारणे गमन करवानुं बतावे छे. पडयु छ: गमन करवान बतावेल के तेटलुंज हवे अहायां जोवार्नु र छे के नहि पण ते वस्तु पर केटलो भार भग्नपणु ए दिगम्बर मतनो पायो छे. मुकेल छे ते जवानो खुबो छे. तथा कोइ एटला माटे तेना मतनुं नाम निर्ग्रन्थमत पण हिसाबे वस्त्र राखवू नहि आवा अणगार विगेरे हि राखतां दिगम्बर विचारथो निर्माएला दिगम्बर मतना भत एटले नग्नमत ए प्रमाणे राखवा शास्त्रकारोए वस्त्र नहि राखवाना सम्ब. मां आवेल छे. अने ज्यां ज्यां मुनि निर्ग्रन्थ न्धमा पोताना ग्रन्थोमां अनेक रीते हवा श्रमण संयत विगेरे शब्दना व्याख्या पहोळा चर्चाओ उठावी पण छेवटे तमने करवा होय त्या त्या बोजा शब्दोनो आछो निरुपाय अपवाद वेष तरीके पण वस्त्रने प्रयोग करतां नग्न दिगम्वर वस्त्ररहित स्वीकारवां पडयां. जुओं दर्शनपाभृतनी टोकाकारोए व्याख्यान करेल छे. आ विगेरेने वस्त्राभाव सूचक शब्दोथा तेना टीका-कर्ता दिगम्बर श्रुतसागरसूरि रात वस्त्रना अभाव उपर जेना दर्शननी कोऽयमपचादवेषः ! कला 'किल म्लेच्छा- रचना छे एवा दिगम्बरोने पण कारणे दयो नग्नं दृष्ट्वापद्रवं यतीनां कुर्वन्ति तेन वस्त्र सिवाय बालो शक्य नथो अने र मण्डपटुग श्रीवसन्तकोतिना चांदिवे- रीते अपवादमागें वस्त्रो स्वीकारवां लायां तट्टीसादादिकेन शरीरमाच्छाद्य पडयां छे. चर्यादिकं कृत्वा पुनस्तन्मुच्चन्तीत्युपदेशं तथा श्रुतसागरसूरिकृत तत्त्वार्थवृतिमां कृत संयमिनामित्यपवादवेधः तथा नृपा- नवमा अध्यायमा आराधना भगवतीसूदिवत्पिन्नः परमवैराग्यवान् लिङ्गःशुद्धि- प्रनी सन्मतिथी मुनिओन अपवादमागे For Private And Personal Use Only
SR No.521503
Book TitleJain Satyaprakash 1935 09 SrNo 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1935
Total Pages37
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size17 MB
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