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रहे, किसी प्रकार के एकान्त भेद नहीं था। हां कुछ निन्हवभेद - विचार भेद होते रहे, मगर वो चिरस्थायी न बनने पाये ।
वीर निर्वाण संवत् १४४ में पहिला संघभेद हुआ। उस नये मतके स्थापक थे श्रीगुप्तसूरके शिष्य मुनि रोहगुप्त, और वह नवीन मतका नाम था " त्रैराशिक " ।
तत्पश्चात् श्रीवत्रस्वामीजी और श्री आर्यरक्षितसूरिके स्वर्गगमन के बाद वी० नि० संवत् ५८४ में इतिहास स्मरणीय दुसरा संघभेद पडा ।
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श्री आर्यरक्षितसरिके शिष्य वादनिष्णात गोष्ठामाहिलने एकांत हठाग्रह से संघभेद करके " अबद्धिक " मत च
लाया । उसका कहना यह था -
स्पर्श करके रहता है । १ कर्म अबद्ध रूपसे जीवों को
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२ - त्रतपालन में किसी प्रकारकी कालमर्यादा करनी नहीं । “ में आजीवन प्राणातिपातको छोड़ता हुँ इत्यादि मर्यादाविना ही व्रतपालन करना चाहिए ।
(आवश्यक सूत्र भाष्य, गाथा १४१ से १४४ )
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१० जिनसेनाचार्यकृत दि० हरिवंशपुराण के सर्ग १ श्लोक ३३ में श्रीवस्वामी - सूरि की स्तुति की है । मतलब ? श्रीवज्रस्वामी के बाद स्वेताम्बर दिगम्बर का भेद हुआ है । यह आचार्य दोनों सम्प्रदायको माननिय है - पूज्य है ।
११ आवश्यक भाष्य के प्रत्याख्यान अधिकार में पच्चक्खाणवालेको पच्चक्खाण देने लेने के विषय में चर्चा की है ।
और पंचाशक जी - पंचवस्तु वगेरह में साधुओंके लिए उत्तर प्रत्याख्यानकी आवश्यकता सिद्ध की है, यह सभी दिगम्बर ग्रन्थो में स्वीकृत छठा आवश्यककी अनियतता को ही आभारी है ।
क्यों कि वे पेस्तर छठा आवश्यक - प्रत्याख्यानको मानते थे, बाद में दिगम्बरोने और मानना शुरू किया । दिगम्बर साधुओंको " गुरुदत्तसेसभोयण " का विचार भी अनुकूल नहीं है ।
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